शनिवार, 21 मई 2011

दूर के ढोल सुहावने


उछलता हुआ महासागर दूर से कितना मनमोहक और भव्य दिखता है परंतु उसमें कूद पड़ेंगे तो क्या होगा ? विनाश ! आपके झरोखे से दिखती दूर-दूर तक फैली पर्वतों की श्रृंखला और जंगल की वह अपार प्राकृतिक शोभा आपकी आँखों को कैसा अदभुत आनंद पहुँचाती है ! परंतु उसी पर्वत-श्रृंखला और जंगल में पहुँचने पर वहाँ का वनवासी जीवन प्रत्यक्ष देखेंगे तो कितनी सारी तकलीफों और खतरों से भरा होता है।
सूर्य दूर से कितना देदीप्यमान, मोहक दिखता है और हमारा जीवनदाता माना जाता है परंतु उसके निकट जायेंगे तो उसमें से निकलती गर्मी से मौत ही होगी। रेगिस्तान में मृगजल का मायावी सरोवर दूर से कितना नयनरम्य दिखता है परंतु निकट जाकर देखेंगे तो वे रेत के टीले ही तो हैं !
इस तरह विश्व की स्थूल प्रकृति भी यही सिखाती है कि दृश्य या पदार्थ मात्र दूर से ही आकर्षक लगते हैं। आकर्षित होकर मजा लेने की या भोग की दृष्टि से उन्हें स्पर्श करना मुसीबत मोल लेना है। दूर से, साक्षीभाव से दृश्य या पदार्थमात्र को देखना, उपभोगदृष्टि से रहित हो यथावश्यक उनका उपयोग करना यही सही दृष्टिकोण है, जिसे प्राप्त करने पर हम भोगदृष्टियुक्त मोहक आकर्षण से मुक्त हो जायेंगे।
'मैं पुरूष' या 'मैं स्त्री' ऐसा देहाध्यास टालने का अभ्यास करते-करते आत्मानुभव में स्थित होने पर ऐसी दृष्टि सुस्थिर हो जाती है। तब आकर्षण के कामुक असर से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। ऐसे आत्मानुभव की प्राप्ति का लक्ष्य बनाने के साथ विवेकपूर्ण चिंतन और भगवन्नाम का सहारा व्यक्ति को कामुक आकर्षण के खतरे से हमेशा बचा लेता है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 18, अंक 166
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