सोमवार, 12 सितंबर 2011

सीधे बैठिये, आत्मविश्वास बढ़ाइये



वैज्ञानिकों का कहना है कि बैठने के ढंग का सीधा संबंध आत्मविश्वास से है। जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेरियर द्वारा किये गये एक शोध में पाया गया है की ढीला और झुककर बैठने के आदी लोगों की तुलना में सीधे बैठने वाले लोगों का आत्मविश्वास बहुत अधिक बढ़ता है।
इस शोध को करने वाले विज्ञानियों ने सौ से भी अधिक लोगों को एक परीक्षण में हिस्सा लेने को कहा। प्राप्त परिणामों में पाया गया कि जो लोग सीधे बैठकर काम कर रहे थे उनका प्रदर्शन काफी अच्छा था लेकिन झुककर काम करने वालों के प्रदर्शन पर बहुत ही विपरीत असर पड़ा। विज्ञानियों का कहना है कि सीधे बैठकर काम करने से अंदर बेहतर तरीके से काम करने की भावना का जन्म होता है।
वैज्ञानिक तो अभी इस बात पर सहमत हुए हैं पर भारत के ऋषि और संत तो सदियों पहले से ही सीधे बैठने के इस नियम को विद्यार्थियों के जीवन में ढालने का निर्देश देते आये हैं। आज भी पूज्य बापू जी अपने सत्संग शिविरों में विद्यार्थियों को ही नहीं अपितु सभी को सीधे टट्टार बैठने को प्रेरित करते हैं।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 145
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जिज्ञासु बनो



विश्व की सारी बड़ी-बड़ी खोजें – चाहे वे ऐहिक जगत की हों, बौद्धिक जगत की हों, धार्मिक जगत की हों अथवा तात्त्विक जगत की हों – सब खोजें हुई हैं जिज्ञासा से ही। इसलिए अगर अपने जीवन को उन्नत करना चाहते हो तो जिज्ञासु बनो। वे ही लोग महान बनते हैं जिनके जीवन में जिज्ञासा होती है।
थामस अल्वा एडिसन तुम्हारे जैसे ही बच्चे थे। वे बहरे भी थे। पहले रेलगाड़ियों में अखबार, दूध की बोतलें आदि बेचा करते थे परंतु उनके जीवन में जिज्ञासा थी, अतः आगे जाकर उन्होंने आविष्कार किये। बिजली का बल्ब आदि 1093 खोजें उनकी देन हैं। जहाँ चाह वहाँ राह। जिसके जीवन में जिज्ञासा है वह उन्नति के शिखर जरूर सर कर सकता है। जीवन में यदि कोई जिज्ञासा नहीं हो तो फिर उन्नति नहीं हो पाती।
हीरा नामक एक लड़का था, जो किसी सेठ के यहाँ नौकरी करता था। एक दिन उसने अपने सेठ से कहाः "सेठ जी ! मैं आपका 24 घण्टे का नौकर हूँ और मुनीम तो केवल एक दो घण्टे के लिए आकर आपसे इधर-उधर की बातें करके चला जाता है। फिर भी मेरा वेतन केवल 500 रूपये है और मुनीम का 5000 रूपये, ऊपर से सुविधाएँ भी उसको ज्यादा, ऐसा क्यों?"
सेठः "हीरा ! तुझमें और मुनीम में क्या फर्क है यह जानना चाहता है तो जा, जरा बंदरगाह होकर आ। वहाँ अपना कौन सा स्टीमर आया है, उसकी जाँच करके आ।"
नौकर गया एवं रात्रि को लौटा। उसने सेठ से कहाः "सेठ जी ! अपना बादाम और काली मिर्च का स्टीमर आया है।"
सेठः "और क्या माल आया है?"
वह फिर पूछने गया एवं आकर बोलाः
"लौंग भी आयी है।"
सेठः "यह किसने बताया?"
हीराः "एक आदमी ने।"
सेठः "अच्छा, वह आदमी कौन था? जवाबदार मुख्य आदमी था कि साधारण?"
हीराः "यह तो पता नहीं है।"
सेठः "जाओ, जाकर मुख्य आदमी से पूछो कि कौन-कौन सी चीजें आयी हैं और कितनी कितनी आयी हैं?"
हीरा फिर गया और सामान एवं उसकी मात्रा लिखकर लाया।
सेठः "ये चीजें किस भाव में आयी हैं और इस समय बाजार में क्या भाव चल रहा है, यह पूछा तूने ?"
हीराः "यह तो नहीं पूछा।"
सेठः "अरे मूर्ख ! ऐसा करते करते तो महीना बीत जायेगा।"
फिर सेठ ने मुनीम को बुलाया और कहाः
"बंदरगाह जाकर आओ।"
मुनीम वहाँ हो के आया और बोलाः
"सेठ जी ! इतने मन बादाम हैं, इतने मन काली मिर्च है, इतने मन लौंग हैं और इतने इतने मन फलानी चीजें हैं। सेठ जी ! हमारा स्टीमर जल्दी आ गया है एत दो दिन बाद दूसरे स्टीमर आयेंगे तो बाजार भाव में मंदी हो जायेगी। अभी बाजार में माल की कमी है, अतः अपना माल खींचकर चुपके से बेच देने में ही लाभ है। यहाँ आने जाने में देर हो जाती, अतः मैं आपसे पूछने नहीं आया और माल बेच दिया है। अच्छे पैसे मिले हैं, यह रहे दो लाख रूपये।"
सेठ ने नौकर से कहाः "देख लिया फर्क ! तू केवल चक्कर काटता रहता और दो चार दिन विलम्ब हो जाता तो मुझे पाँच लाख का घाटा पड़ता। यह मुनीम पाँच लाख के घाटे को रोककर दो लाख का नफा करके आया है। इसको मैं 5000 रूपये देता हूँ तो भी सस्ता है और तुझको 500 रूपये देता हूँ फिर भी महँगा है, क्योंकि तुझमें जिज्ञासा नहीं है।"
बिना जिज्ञासा का मनुष्य आलसी-प्रमादी हो जाता है, तुच्छ रह जाता है जबकि जिज्ञासु मनुष्य हर कार्य में तत्पर एवं कर्मठ होता है। जिसके अंदर जिज्ञासा है वह छोटी-छोटी बातों में भी बड़े रहस्य खोज लेगा और जिसके जीवन में जिज्ञासा नहीं है वह रहस्य को देखते हुए भी अनदेखा कर देगा। जिज्ञासु की दृष्टि पैनी होती है, सूक्ष्म होती है। वह हर घटना को बारीकी से देखता है, खोजता है और खोजते-खोजते रहस्य को भी प्राप्त कर लेता है।
किसी कक्षा में पचास विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिसमें शिक्षक तो सबके एक ही होते हैं, पाठ्यपुस्तके भी एक ही होती हैं किंतु जो बच्चे शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनते हैं एवं जिज्ञासा करके प्रश्न पूछते हैं, वे ही  विद्यार्थी माता-पिता एवं स्कूल का नाम रोशन कर पाते हैं और जो विद्यार्थी पढ़ते समय ध्यान नहीं देते, सुना अनसुना कर देते हैं, वे थोड़े से अंक लेकर अपने जीवन की गाड़ी बोझीली बनाकर घसीटते रहते हैं एवं बड़े होकर फिर किस कोने में मर जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अतः जिज्ञासु बनो।
जब शिक्षक पढ़ाते हों उस समय ध्यान देकर पढ़ो। यदि समझ में न आये तो अपने आप उसको समझने की कोशिश करो। अपने आप उत्तर न मिले तो साथी से या शिक्षक से पूछ लो। ऐसा करके अपनी जिज्ञासा को बढ़ाओ और पूरो करो। जिसके पास जिज्ञासा नहीं है उसको तो ब्रह्माजी भी उपदेश करें तो क्या होगा ! जो व्यक्ति जितने अंश में जिज्ञासु होगा, तत्पर होगा वह उतने ही अंश में सफल होगा।
अगर जिज्ञासा नहीं होगी, तत्परता नहीं होगी तो पढ़ाई में पीछे रह जाओगे, बुद्धिमत्ता में पीछे रह जाओगे और मुक्ति में भी पीछे रह जाओगे। तुम पीछे क्यों रहो ! जिज्ञासु बनो, तत्पर बनो। सफलता तुम्हारा इन्तजार कर रही है। ऐहिक जगत के जिज्ञासु होते-होते मैं कौन हूँ?शरीर मरने के बाद भी मैं रहता हूँ, मैं आत्मा हूँ तो आत्मा का परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो ? जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है वह तत्त्व क्या है ? ऐसी जिज्ञासा करो। इस प्रकार की ब्रह्म जिज्ञासा करके ब्रह्मज्ञानी जीवन्मुक्त होने की क्षमताएँ तुममें भरी हुई हैं। शाबाश वीर ! शाबाश !!....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 159
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भक्ति रस बढ़ाने वाले आठ साधन



(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)
अगर भक्ति रस का रसास्वाद लेना है, विकारी आकर्षणों से जान छुड़ानी है, दुःखों और परेशानियों से अपना पिंड छुड़ाना है तो आठ बातों पर ध्यान देना बड़ा हितकारी।
भगवन्नाम-जप में रूचि हो। माला पर जपें, मानसिक जपें या वाचिक जपें, वैखरी से जपें, मध्यमा से जपें, पश्यंती से जपें या परा से जपें लेकिन नामजप में रुचि बढ़ा दें। बोलेः 'रूचि नहीं होती।' तो भी नामजप बढ़ा दें, रूचि बढ़ जायेगी।
भगवन्नाम-कीर्तन व भगवद-गुणगान करें।
सत्संग का आश्रय लेते रहें, बार बार सत्संग की शरण जायें।
सासांरिक चर्चा से बचें। फालतू चर्चा – क्या बनाया, क्या खाया, उसका क्या नाम है, फलाना कहाँ है, ढिमका कहाँ है.. इससे राग-द्वेष बढ़ता है, शक्ति क्षीण होती है।
दूसरों की निंद न करें, न सुनें।
स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान दें। मान की इच्छा रखने से जीवभाव, अहंकार उभरता है, जो भक्तिरस में बाधा है।
मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाये।
चाह उसी की राखता, सो भी अति दुःख पाये।।
जब कोई सेवा करता है तो लोग बोलते हैं 'वाह भाई ! तुमने बहुत बढ़िया काम किया।' यदि सेवा करने वाला बुद्धिमान होगा तो सतर्क हो जायेगा, सकुचायेगा और कोई अहंकारी होगा तो छाती फुलायेगा। जो अहंकारी, स्वार्थी लोग होते हैं वे काम थोड़ा करते हैं और नाम ज्यादा चाहते हैं। वे झुलसते हैं बेचारे, खाली रह जाते हैं। जो साधक होते हैं वे काम बहुत करते हैं और नाम नहीं चाहते हैं, तो भक्तिरस उनके हृदय में उभरता रहता है, आनंद उनके हृदय में उभरता रहता है।
अपने चित्त को दुःखी न करें और दूसरे का चित्त दुःखी हो ऐसी बात नहीं करें। ऐसी बात सुनाने का मौका भी आता है तो इस ढंग से सुनायें की उसको ज्यादा दुःख न हो।
सर्वदा सच्चरित्र रहें और सत्यस्वरूप में गोता मारने का अभ्यास करें।
भगवान और गुरू से निरहंकार होकर प्रेम करने से भक्तिरस बढ़ता है। जो उनसे संसारी माँग करते हैं वे असली खजाने से वंचित रह जाते हैं। भक्तिरस के आगे दुनिया के वैभव कुछ मायना नहीं रखते।
शांत रस, वीर रस, हास्य रस, श्रृंगार रस-ऐसे अनेक प्रकार के रस हैं लेकिन भक्ति के आचार्यों ने कहा कि इन सबमें प्रेमरस का ही प्राधान्य है। प्रेमरस ही अनेक रूप होकर दिखता है। सिनेमा में जो दिखाते हैं, वह तो सत्यानाश करने वाला काम है। प्रेमी-प्रेमिका जो प्रेमिका दिखाते हैं वह तो सत्यानाश करने वाला काम विकार है। प्रभुप्रेम तो परमात्ममय बना देता है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 161
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बुधवार, 10 अगस्त 2011

सफलता का मूलमंत्र



विदुरजी द्वारा बताये इस मूलमंत्र को यदि हम अपने जीवन में उतार लें तो हमारे परम सौभाग्य का मार्ग खुलते देर नहीं लगेगी।
उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृतिः स्मृतिः।
समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तु।।
'उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना-इन्हें मूलमंत्र समझिये।'
(महाभारतः उद्योग पर्वः 39.38)
उद्योग का स्थूल अर्थ है उत्तम। अपने कार्य में तत्पर रहना चाहिए। व्यक्ति को कर्तव्यपरायण अर्थात् कर्मठ होना चाहिए। जो काम जिस समय करना है उसे उसी समय कर डालना चाहिए, चाहे कार्य छोटा ही क्यों न हो।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब।।
व्यक्ति को मानसिक परिश्रम के साथ शारीरिक परिश्रम भी करना चाहिए। प्रायः मानसिक परिश्रम करने वाले व्यक्ति शारीरिक परिश्रम करना छोड़ देते हैं, जिससे कई बीमारियाँ उन्हें आ घेरती हैं। अतः शारीरिक परिश्रम करना ही चाहिए, फिर वह चाहे व्यवसाय, दौड़ सेवा आदि कोई भी माध्यम क्यों न हो। आलसी प्रमादी न होकर कर्तव्यपरायण होना चाहिए।
जो सांसारिक सफलता पाने को ही उद्योग मानते हैं, वे अति तुच्छ मति के होते हैं। वास्तविक उद्योग क्या है ? शरीर से दूसरों की सेवा, कानों से सत्संग-श्रवण, आँखों से संत-भगवंत के दर्शन, मन से परहित चिंतन, बुद्धि से भगवान को पाने का दृढ़ निश्चय और हृदय में भगवत्प्रेम की अविरत धारा यही वास्तविक उद्योग है।
दूसरा गुण है संयम। जिसमें इन्द्रियों का संयम, वाणी का संयम, संकल्प-विकल्पों का संयम मुख्य है। इसमें दीर्घ ॐकार का जप बड़ा लाभदायी है, श्वासोच्छ्वास की गिनती बड़ी हितकारी है।
जिसके जीवन में संयम नहीं है वह पशु से भी गया बीता है। उसका मनुष्य-जीवन सफल नहीं होता। पशुओं के लिए चाबुक होता है परंतु मनुष्य को बुद्धि की लगाम है। सरिता भी दो किनारों से बँधी हुई संयमित होकर बहती है तो वह गाँवों को लहलहाती हुई अंत में अपने परम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त हो जाती है। ऐसे ही मनुष्य-जीवन में संयम के किनारे हों तो जीवन-सरिता की यात्रा परमात्मारूपी सागर में परिसमाप्त हो सकती है।
दक्षता जीवन का अहम पहलू है। जितना आप कार्य को दक्षता से करते हैं, उतनी आपकी योग्यता निखरती है। यदि आप कोई कार्य कर रहे हैं तो उसमें पूरी कुशलता से लग जाईये। लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में आवश्यक है। दो कार्यों के बीच में थोड़ी देर शांत होना चाहिए।
सावधान यह सबसे महत्त्वपूर्ण सदगुण है। जीवन में दक्षता आने पर सावधानी सहज रूप से बनी रहती है। कहावत है कि सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी और सावधानी बढ़ी तो दुर्घटना टली। कार्य में लापरवाही सर्वनाश ही लाती है। जिस प्रकार यदि जहाज का पायलट सावधान है तो यात्रियों को गंतव्य तक पहुँचा देगा और यदि उसने असावधानी दिखायी तो उसकी लापरवाही यात्रियों की मृत्यु का कारण बन जायेगी। किसी बाँध के निर्माण में यदि इंजीनियर ने लापरवाही की तो हजारों-लाखों लोगों के जान-माल और लाखों-करोड़ों रूपयों की हानि होगी। जीवन में लापरवाही जैसा और कोई दुश्मन नहीं है।
किसी भी कार्य को करते समय धैर्य रखो। उतावलेपन से बने बनाये काम भी बिगड़ जाते हैं। मन को समझाना चाहिएः
बहुत गयी थोड़ी रही, व्याकुल मन मत हो।
धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो।।
कोई भी कार्य सोच-समझकर करना ही बुद्धिमानी है। कहा गया हैः
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछताय।
काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हँसाय।।
कार्य के प्रारम्भ और अंत में आत्मविचार भी करना चाहिए। हर इच्छापूर्ति के बाद जो अपने-आपसे ही प्रश्न करे कि 'आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिला ?' वह दक्ष है। ऐसा करने से वह इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होने वाले दक्ष महापुरुष की नाईं निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा। साथ ही यह स्मृति हमेशा बनाये रखनी चाहिए कि 'जीवन में जो भी सुख-दुःख आते हैं वे सब बीत रहे हैं, इन सबको जानने वाला मैं साक्षी चैतन्य आत्मा सदैव हूँ।'
उपरोक्त सात सदगुणों को जीवन में अपनाना ही सफलता का मूलमंत्र है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 167
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स्वास्थ्य के कुछ घरेलु प्रयोग



शक्कर, भुना जीरा तथा पुदीने को पीस के पानी में घोलकर पीने से गर्मियों में ठंडक मिलती है।
आम की गुठली के बारीक पाउडर से मंजन करने पर पायरिया तथा दाँतों के अन्य विकार नष्ट हो जाते हैं।
छाती में दर्द होने पर गाजर के रस में शहद मिलाकर सेवन करने से बहुत लाभ होता है, लेकिन रस उबली हुई गाजरों का ही निकालें।
कान बहता हो या दर्द करता हो तो प्याज का रस गुनगुना करके 4-5 बूँद डालने से शीघ्र आराम होता है।
प्याज और अदरक का रस मिलाकर पिलाने से उलटी बंद हो जाती है।
मुलतानी मिट्टी में आलू का रस मिलाकर बनाये गये लेप को चेहरे पर लगाने से त्वचा में निखार आता है।
भोजन के बाद थोड़ी सौंफ चबाने से मुँह के छालों में आराम मिलता है।
दमे के रोगी के लिए करेले की सब्जी बहुत लाभकारी है।
धोये हुए चावल का पानी मिश्री मिलाकर सेवन करने से पेचिश, अतिसार व प्रदर रोग में लाभ होता है।
नींबू के रस में नमक मिलाकर दाँत साफ करने से वे चमकदार बने रहते हैं। इसे सिर्फ दाँतों पर ही लगायें, मसूड़ों पर नहीं।
आँवले तथा आम की गुठली को पीस लें, पानी मे उसका पेस्ट बना के बालों में लगाने से वे असमय सफेद नहीं होते।
नमक व काली मिर्च के मिश्रण से दाँत माँजने से मुँह से बदबू नहीं आती।
पके पपीते में नींबू का रस डालकर सेवन करने से बदहजमी दूर होती है।
लहसुन के रस मे कपूर मिलाकर मालिश करने से जोड़ों के दर्द में आराम होता है।
पैर ऐँठ जायें तो सहनीय गर्म पानी में नमक डालकर कुछ देर रखने से आराम मिलता है।
पका केला भुने जीरे के साथ खाने से नींद अच्छी आती है।
सदैव ही खाँसी-जुकाम रहता हो तो प्रतिदिन खाली पेट कम मात्रा में गुनगुने पानी का सेवन करने की आदत डालें।
अदरक, दालचीनी व तुलसी की कुछ पत्तियाँ डालकर चाय बनाकर पीने से गले की खराश ठीक होती है(इसमें दूध नहीं डालें)।
जिस स्थान पर काँटा चुभा है, वहाँ थोड़ी-सी हींग रगड़ दें, काँटा निकल जायेगा।
देसी घी में हल्दी या तुलसी का पत्ता डाल देने से लम्बे समय तक उसकी सुगंध नहीं जाती।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2011, पृष्ठ संख्या 13, अंक 167
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स्वावलम्बी बनो



पूज्य बापू जी
अपनी दिव्य संस्कृति भूलकर हम विदेशी कल्चर के चक्कर में फँस गये हैं। लॉर्ड मैकाले की कूटनीति ने भारत की शक्ति को क्षीण कर दिया है।
मैकाले जब भारत देश में घूमा तब उसने देखा कि भारत के संतों के पास ऐसी यौगिक-शक्तियाँ, योगविद्या व आत्मविद्या है, ऐसा मंत्र-विज्ञान है कि यदि भारत का एक नौजवान भी संतों से प्रेरणा पाकर उनके बताये मार्ग पर चल पड़ा तो ब्रिटिश शासन को उखाड़कर फेंक देने में सक्षम हो जायेगा।
इसलिए मैकाले ने सर्वप्रथम संस्कृत विद्यालयों और गुरुकुलों को बंद करवाया और अंग्रेजी स्कूल शुरू करवाये। हमारे गृह-उद्योग बंद करवाये और शुरू करवायीं फैक्टरियाँ।
पहले लोग स्वावलम्बी थे, स्वाधीन होकर जीते थे, उन्हें पराधीन बना दिया गया, नौकर बना दिया गयाष धीरे-धीरे विदेशी आधुनिक माल भारत में बेचना शुरु कर दिया गया। जिससे लोग अपने काम का आधार यंत्रों पर रखने लगे और प्रजा आलसी, पराश्रित, दुश्चरित्र, भौतिकवादी बनती गयी। इसका फायदा उठाकर ब्रिटिश हम पर शासन करने में सफल हो गये।
एक दिन एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर घूमने निकला था। उसे बचपन से ही भारतीय संस्कृति के पूर्ण संस्कार मिले थे। नगर से गुजरते वक्त अचानक राजकुमार के हाथ से चाबुक गिर पड़ा। राजकुमार स्वयं घोड़े से नीचे उतरा और चाबुक लेकर पुनः घोड़े पर सवार हो गया। यह देखकर राह से गुजरते लोगों ने कहाः"मालिक ! आप तो राजकुमार हो। एक चाबुक के लिए आप स्वयं घोड़े पर से नीचे उतरे ! हमें हुक्म दे देते !"
राजकुमारः "जरा-जरा से काम में यदि दूसरे का मुँह ताकने की आदत पड़ जायेगी तो हम आलसी, पराधीन बन जायेंगे और आलसी पराधीन मनुष्य जीवन में क्या प्रगति कर सकता है ! अभी तो मैं जवान हूँ। मुझमें काम करने की शक्ति है। मुझे स्वावलम्बी बनकर दूसरे लोगों की सेवा करनी चाहिए, न कि सेवा लेनी चाहिए। यदि आपसे चाबुक उठवाता तो सेवा लेने का बोझा मेरे सिर पर चढ़ता।"
हे भारत के नौजवानो ! संकल्प करो कि 'हम स्वावलम्बी बनेंगे।' नौकरों तथा यंत्रों पर कब तक आधार रखोगे ! हे भारत की नारी ! अपनी गरिमा भूलकर यांत्रिक युग से प्रभावित न हो ! श्रीरामचन्द्रजी की माता कौशल्यादेवी इतने सारे दास-दासियों के होते हुए भी स्वयं अपने हाथों से अपने पुत्रों के लिए पवित्र भोजन बनाती थीं। तुम भी अपने कर्तव्यों से च्युत मत होओ। किसी ने सच ही कहा है।
स्वावलम्बन की एक झलक पर।
न्यौछावर कुबेर का कोष।।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2011, पृष्ठ संख्या 12, अंक 167
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चरित्र ही सच्ची सम्पत्ति



यजुर्वेद (23.15) में आता हैः
स्वयं वाजिँस्तन्वं कल्पयस्व।
'हे मानव ! शक्तिशालिन् ! अपने जीवन का निर्माण करो। अपने चरित्र को उन्नत बनाओ।'
पूज्य बापू जी कहते है- चरित्र की पवित्रता हर कार्य में सफल बनाती है। जिसका जीवन संयमी है, सच्चरित्रता से परिपूर्ण है उसकी गाथा इतिहास के पन्नों पर गायी जाती है।'
व्यक्तित्व का निर्माण चरित्र से ही होता है। बाह्यरूप से व्यक्ति ही सुंदर हो, निपुण गायक हो, बड़े से बड़ा कवि या वैज्ञानिक हो, चमक-दमक व फैशनवाले कपड़े पहनता हो परंतु यदि वह चरित्रवान नहीं है तो समाज में उसे सम्मानित स्थान नहीं मिल सकता। उसे तो हर जगह अपमान, अनादर ही मिलता है। चरित्रहीन व्यक्ति आत्मसंतोष और आत्मसुख से वंचित रहता है। कवि माघ ने कहा हैः 'दुर्बल चरित्र का व्यक्ति उस सरकंडे के समान है जो हवा के हर झोंके पर झुक जाता है।'
स्वामी शिवानंदजी कहा करते थेः 'मनुष्य-जीवन का सारांश है चरित्र। मनुष्य का चरित्र ही सदा जीवित रहता है। चरित्र का अर्जन नहीं किया गया तो ज्ञान का अर्जन भी नहीं किया जा सकता। अतः निष्कलंक चरित्र का निर्माण करें।'
चरित्रवान व्यक्ति के आस-पास आत्मसंतोष, आत्मशांति और सम्मान वैसे ही मँडराते हैं, जैसे कमल के इर्द-गिर्द भौंरे, मधु के इर्द-गिर्द मधुमक्खियाँ। चरित्र एक शक्तिशाली उपकरण है जो शांति, धैर्य, स्नेह, प्रेम, सरलता, नम्रता आदि दैवी गुणों को निखारता है। किसी भी नये स्थान पर जाने पर चरित्रवान व्यक्ति अपनी छाप, प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता। चरित्र उस पुष्प की भाँति है जो अपना सौरभ सुदूर देशों तक फैलाता है। महान विचार तथा उज्जवल चरित्रवाले व्यक्ति का ओज चुम्बक की भाँति प्रभावशाली होता है।
उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका गये हुए थे। वहाँ के लोगों के लिए उनके काषाय वस्त्र व उनका पहनावा कुतूहल का विषय बना हुआ था। एक दिन शिकागो शहर की सड़क पर वे पैदल जा रहे थे तभी पीछे आ रही एक अमेरिकन महिला ने व्यंग्य करते हुए अपने पुरुष साथी से कहाः "जरा इन महाशय की इस अजीब पोशाक को तो देखो !" विवेकानंद जी उस व्यंग्य को सुनकर रूक गये। पीछे मुड़कर उस महिला से बोलेः "देवी ! आपके देश में दर्जी सभ्यता के उत्पादक और कपड़े सज्जनता की कसौटी माने जाते हैं परंतु जिस देश से मैं आया हूँ, वहाँ कपड़ों से नही, मनुष्य के चरित्र से उसकी पहचान की जाती है।"
यह सुनकर उस महिला का शर्म सिर से झुक गया। व्यक्ति की महानता उसके कपड़ों से नहीं उसके चरित्र से होती है। विद्यार्थियों को अपने चरित्र पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
सुभाषचन्द्र बोस ने कहा थाः 'अगर कॉलेजी डिग्रियों के बाद भी मनुष्य में सच्चरित्रता, शांति, आध्यात्मिकता नहीं आयी तो इससे तो मैं अनपढ़ रहना पसंद करूँगा।'
स्वामी लीलाशाह जी भी कहते थेः "धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ-कुछ गया परंतु चरित्र का नाश हुआ तो सब कुछ नष्ट हो गया। इसलिए बनाने जैसा और संभालने जैसा तो मात्र चरित्र ही है।'
चरित्र के बिना जीवन मृतक के समान है। अतः पवित्र और सदाचारी बनो। सत्संग का आश्रय लो, जीवन में लाकर चरित्रवान बनो।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मई 2011, पृष्ठ संख्या 2, अंक 167
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बुधवार, 25 मई 2011

QA 3


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Param Pujya Shri Sadgurudev ji Asharam Bapuji ke shrimukhaarvind se bhakton ke prashno ka samaadhaan
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Question 3 : Gurudev Surat shibir ke baad dinaank 1/3/2008 se mujhe satsang sunane se  jhatake aate hai , jhumati hun..bhaav aataa hai aur kabhi kabhi ronaa aataa hai..kabhi hasati hun..swapne bade vichitr aate hai..aap ke darshan bhi hote hai..prabhu mere liye kyaa aagyaa hai? maai aap shri ki sharan hun..

prashnkarti : shrimati Deepa Gaandhiwaar ; Itaa, Madhyapradesh.




Answer :

pahele ke prasho ke uttar me tumhaare prashn ka uttar chhupaa hai..ye sab hotaa hai...lekin ho ho ke badalataa hai us ko saakshi swabhaav me , sat swabhaav me agar hotaa hai to us me naa ho ye bhi aagrah naa kare aur vaise kaa vaise hotaa rahe is kaa bhi aagrah naa kare..





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मंगलवार, 24 मई 2011

QA 2


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Param Pujya Shri Sadgurudev ji Asharam Bapuji ke shrimukhaarvind se bhakton ke prashno ka samaadhaan
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Prashn kartaa : Shambhu Kumaar; Gaanv : Raghunathpur Bihaar.



Question 1 :

Gurudev aap se Patanaa me dikshaa li thi. ..(Gurudev bole : Bihaari baa?..:) ) ..kuchh din saadhanaa karane ke baad kuchh aisi ghatanaa ghati ki man me vikshep hone lagaa...sandhyaa, saadhanaa me man bahut bechain-saa rahene lagaa...meri sthiti bahut dayaniy hai..samaadhaan ke liye aap ki sharan aayaa hun...

answer :-
tum ko to kya vikshep huaa hoga, mere ko to aisaa vikshep huaa  ki mere ko to  bataane me bhi sharam aati hai..lekin aap ke gyaan vardhan ke liye mujhe bataa denaa chaahiye..

saadhan bhajan karate hai to janm janmaantar ke antkaran me jo sanskaar hai  un ki parate hatati to jo maal padaa hai vo uchhal kud karataa hai..to ham aagrah karate ki aisa nahi hona chaahiye to vikshep hotaa hai...agar pasaaar ho jaaye, vikshep hotaa hai to hone do.. athavaa vikshep naa ho aisi paramaatmaa ko prarthanaa kar ke phir aagyaa chakr me dhyaan karo ki  'niche ke kendro ke jo sankaar hai chhodo'.. to us ke vikshep se bach jaayenge...
dusaraa aisaa vikshep hotaa hai ki jo saadhan karate hai aur khub dil lagaa kar karate hai to aap ke sharir ke jo ang hai vo vishesh majbut hote hai...kaarykshamataa un ki badh jaati hai.. kaary kshamataa badh jaati hai to jo bhakt hai, kaam vikaar se bache hai aise logo ke andar bhi kaam vikaar utpann ho jaataa hai..
ganeshpuri ke muktaanand baba ne apane  anubhav men likhaa hai ..granth hai un ka kundalini yog us me likhaa hai aisa mere sunane me aayaa.. to un ko to aisaa hotaa thaa...un ko hi nahi , mere ko bhi aisaa hotaa thaa ki aise vikaar utpann ho ki ..kisi baai ke prati nahi lekin vikaari indriyaa itani jor se jor maare ki langoti tut jaaye...mere ko aisaa hotaa ki maine khaanaa-pinaa chhod diyaa ..thode chane bhigo ke khaataa ..phir bhi aisaa vikaar, aisi soch ki kalpanaa bhi nahi kar sakate..aur aisaa bhi nahi ki man me vikaar hai-shaadi huyi thi..patni binati kar rahi thi..maa aur us ke maayake ne bhi samajhaayaa thaa..us samay aisaa nahi thaa aur ab to disaa me rahete aur itanaa vikaar?..agar vikaar itanaa hotaa to ham to chale aate ahmdaabaad ..ghar me to sab  baat dekh rahe the ki kab aaye bhaiyya..kab aaye betaa..kab aaye patidev...kab aaye mitr...lekin vikaar huaa to vikshep huaa ki nahi honaa chaahiye..phir disaa men banaas nadi hai..gogundaa se chalati hai..to us nadi ke paani me jaakar ham baithate the...aur phir bhi indriyaa bilkul aise ki baas..to apane aap par ronaa aataa aur apane aap ko kaan pakad ke  tamaache maarate..aur ek baar to maine guruji ko bhi chiththi likh di ki mere ko hotaa hai ki chakku leke chhuraa lekar is kaam indriyaa ko mai kaat ke phenk dun..itanaa kuchh hota hai...to guruji ne uttar bhejaa ki bhagavaan dayaa karegaa , chintaa nahi karo..haalaaki guruj i kaa lilaashaah bapuji kaa ye raastaa nahi thaa..ye kundalini yog ka raastaa hai...guruji ka tatvgyaan ka raastaa hai..lekin tatvgyaan me pahunche huye purush ko to sabhi raasto ka anumaan to ho hi jata hai..phir disa ke wo awasthaa se ham baahar aa gaye..to aisaa kyo hotaa hai? kabhi jibh nikalati..kabhi aankhe aisi hoti... kabhi  golghanti jaisa sharir ghumataa hai..kabhi haasy hotaa hai ..

to hamaare sansaar ka saar sharir hai... yog vashishth ke aadhaar se bolataa hun...sharir kaa saar indriyaa hai..indriyon kaa saar man hai..man kaa saar budhdi hai...budhdi ka saar jivaatmaa hai..jivaatmaa kaa saar vo chidaawali hai- kundalini shakti..us me sanskaar bhare rahete hai...to jab jaagrut hoti hai to gyaaneshwari gitaa ke 6the adhyaay ke 10ve shlok me is dhyaan yog ki mahimaa hai jo apan karate hai yaa sikhaate hai.. yogi pahele chhote mote raasto se chalataa hai, ye raaj maarg milataa hai to yogi phir sambhalataa hai..pahele to vo bhaybhit kar deti hai jab chitt shakti jagrut hone lagati...vikshep kar deti hai..vilakshanataa kuchh hoti hai.. us ke sharir ka majjaa maith ko chaat jaati hai..rogo ke sath sharir ke majja aur charabi ko bhi chaat jaati hai..phir us ke sharir me aise aise ye ye hotaa hai..ye maine padhaa huaa thaa...to mai vikshep ke samay bhi jyaadaa to darataa nahi thaa...lekin jab ye huaa to dar to nahi huaa..lekin apane aap par glaani aati thi...apane aap ko thapade maaranaa..ye vo karanaa..ye awasthaa hai..aa ke chali jaayegi..to  raajasi awasthaa,saatvik awasthaa, taamasi awasthaa antakaran ke sath,sharir ke saath, prakriti ke saath  lagi raheti..lekin is me sundar upaay hai jo mujhe us samay nahi milaa thaa..aap ke liye milaa hai abhi..jaise mere bhaai ko livar ki takalif thi to mere ko upaay nahi milaa..aur meraa bhai mar gayaa angreji davaaye kar kar ke..liver thik nahi kar sakate angreji davaaye...baad me mere ko mantr milaa..aur vo kisi ko bhi dete to chamatkaarik phaayadaa hotaa hai.. piliyaa chalaa jata hai (jaundice)..to mere ko jo vikshep kaa saamanaa karanaa padaa yaa muktaanand swaami ko vo abhi aap ko nahi karanaa padegaa..kyo ki aap in awasthaao se apanaa sambandh vikshep maan lo..aisi awasthaa rahe , naa rahe lekin phir bhi jo naa rahe us ki taraf sajaag ho jaao...to braamhi sthiti praapt kar kaary rahe naa shesh... meraa dhyaan lagaa rahe..mujhe aashirwaad do..meri aisi sthiti bani rahe...nahi nahi..is se bhi aage jaao..aisi sthiti bani rahe, aisaa ho jaaye, aisaa naa ho ye chhodo ...jo ho ho ke badalataa hai us ko mahatv naa do..aur jo kabhi nahi badalataa us ko chhodo mat.. to bahut saari saadhanaao ke galiyaare aur sadako ke binaa hi aap udaan bhar udhar tak pahunchane me saphal honge...jaise maa ko genhu lana, aataa pisanaa, ye karanaa, rasoyi banaaanaa ..aur bete ko taiyyar bhojan khaanaa hai..aise aap ko to taiyyar maal mil rahaa hai..ham ne jo paapad bele, hamaare guruji ne jo paapad bele wo saari mehanat kaa phaaydaa aap logo ke liye taiyyar maal!..vikshep rahit surkshit raaste ham aap ko le jana chaahate hai..to aisa kyu hota hai samajh gaye..aur vikshep kaise mite, margdarshan kijiye ..ho gayaa?
is uttar se dusare logo ko jin ko samaadhaan huaa vo haath upar karo...sekando-hajaaro haath upar hai..

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सोमवार, 23 मई 2011

question answer


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Param Pujya Shri Sadgurudev ji Asharam Bapuji ke shrimukhaarvind se bhakton ke prashno ka samaadhaan
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saadhako ke kuchh prashn yahaa padhataa hun aur un ke uttar detaa hun..is se dusare saadhako ko bhi apane apane prashnon ke karib-karib ke uttar mil jaayenge...
(Question by Neelam Dongra, gaanv: Akharota, Panjaab)


Question 1 :
Guruvar ji jab mai pooja men baithati hun to kabhi kabhi lagataa hai ki mera sharir upar uth rahaa hai....aur chhotaa ho gaya ahai...aisa kyon hota hai?

Answer :

aisa kyo hotaa hai? ye sawaal hai...
aisaa kyon naa ho?...:)

ye saadhan men animaa, garimaa, laghimaa aadi sidhdiyon ke ansh bhi bij roop men chhupe hai..

apane aashram me Disa ke ek vyaapaari samarpit huaa aur us ka baad men naam rakhaa Mahant Chandiram...vo Abu ke jungle me subah ghumane gayaa to bahot der tak aayaa nahi...jab der se aayaa to puchhaa ki kyo itani der lagi?...to bole ki , 'jungle me koyi sugandh aa rahi thi..chandan ki aisi koyi sugandh thi...to mai khojaa ki sugandh kahaa se aa rahi...
to mai shant huaa...maine kahaa ki, 'wo sugandh baahar nahi aa rahi thi....aaj tum ne shauch kiyaa hogaa...to aisi sthiti me aa gaye honge ki aisa huaa...

jin ko pratyaahaar sidhd hotaa hai to kayi devi devataao ke darshan hote hai..gandh pratyaahaar sidhd hotaa hai to kayi sugandhiyaa hoti hai..
kabhi kabhi yogi ke shauch se bhi aisi sugandh aati hai ki ohho!dekhe to kya ki jaise 'kasturi kundal base, mrig dhundhe manmaahi'...maine kahaa aise huaa...to aisa hota hai..
Hanumaan ji chhote hote jaate the, bade ho jaate the...to ye aanshik roop me vo hi bij tatv apane me bhi padaa hai..to kabhi kabhi dikhe ki hum bahot chhote ho gaye yaa bade ho gaye athavaa aakaash me ood rahe hai to is me koyi aapatti nahi hai athavaa udane kaa aagrah bhi nahi karanaa hai...apane ko to tatv me chalaa jaanaa hai..jahaa hanumaan ji itani sidhdiyaan paane ke baad bhi jahaa hanumaanji gaye, aapan sidhaa wahi ka nishaanaa rakhate hai!..wo chhote mothe galiyaare khub ghum ke jaaye is se ham sidhaa highway pakadate hai..

to aisa kyo hotaa hai? ..hota hai!..ye apane men bij roop me sanskaar pade hai aur jagrut hote hai isliye hotaa hai..


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Question 2 :
Pooja karane ke baad jab mai uthati hun to mujhe sujhataa nahi hai ki mai kya kar rahi hun...aur thodi der baad pataa chalataa hai..krupayaa in baaton ka samaadhaan kare..


Answer :-

to jab chitt ke paar dashaa men anjaane me chale jaate hai , jaise gaheri nind me kuchh nahi sujhataa hai aise hi dhyaan ki koyi shunya shant awasthaa aati hai..to antakaran ko nahi sujhataa hai ..lekin nahi sujhane ki bhi tum ko sukh rahaa hai!..to 'kuchh nahi sujh rahaa' is ko jo jaanataa hai wo hi tum ho!..wahaa me vishranti ho jaaye!...kuchh nahi sujhataa hai to chintaa naa karo...usi awasthaa me pade raho...sujhanaa antkaran aur indriyon ka khel hai!..sujhane ka aadhaar jo hai, us me ekaakaar ho...
raatri ko nind aati hai to kuchh nahi samajh me aataa hai to darane ki jarurat nahi, sharir pusht hota hai.. aise hi jab jaagrut me kuchh samajh me , sujhane me nahi aaye to darane ki jarurat nahi hai; us se 'swa' ki sthiti pusht hoti hai..

 ab bahen ke prashn ke saath kayiyon ke prashn ka samaadhaan huaa hogaa...huaa hai to haath upar karo!isliye saamuhik prashnottar mujhe achchhe lagate hai..


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शनिवार, 21 मई 2011

संस्कृति की गरिमा को पहचानो !



भारत जब स्वतंत्र होने वाला था उसके कुछ दिन पहले की बात है। उत्तर भारत के एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह हो रहा था। मुख्य अतिथि के रूप में एक महापुरूष को आमंत्रित किया गया था। वहाँ सारी कार्यवाही अंग्रेजी में हुई, जिसे देखकर मुख्य अतिथि को बड़ी वेदना हुई। उनका मन आहत हो गया। दीक्षांत भाषण में उन्होंने जो कहा था, उसका एक-एक शब्द आज भी भारतवासियों के लिए अनुकरणीय है। उन्होंने कहा थाः "अंग्रेजों को हम गालियाँ देते हैं कि उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बना रखा है, लेकिन अंग्रेजी से तो हम खुद ही गुलाम बन गये हैं। अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को गुलाम किया है परंतु अंग्रेजी की अपनी इस गुलामी के लिए मैं उन्हें जिम्मेदार नहीं समझता। खुद अंग्रेजी सीखने और अपने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने के लिए हम कितनी मेहनत करते हैं ! यदि कोई हमें यह कहता है कि हम अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी बोल लेते हैं तो हम मारे खुशी के फूले नहीं समाते। इससे बढ़कर दयनीय गुलामी और क्या हो सकती है ! इसकी वजह से हमारे बच्चों पर कितना जुल्म होता है ! अंग्रेजी के प्रति हमारे इस मोह के कारण देश की कितनी शक्ति और कितना श्रम बरबाद होता है ! अभी जो कार्यवाही यहाँ हुई, जो कुछ कहा या पढ़ा गया, उसे आम जनता कुछ भी नहीं समझ सकी। फिर भी हमारी जनता में इतनी उदारता और धीरज है कि वह चुपचाप सभा में बैठी रहती है और कुछ भी समझ में न आने पर भी यह सोचकर संतोष कर लेती है आखिर ये हमारे नेता हैं न ! कुछ अच्छी बात ही कहते होंगे। परंतु इससे उसे लाभ क्या ? वह तो जैसी आयी थी, वैसी ही खाली लौट जाती है !... मैं तो यह देखकर हैरान हो गया।"
भाषणकर्ता थे महात्मा गाँधी और वह स्थान था 'हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी'
कितनी दयनीय स्थिति है कि अहंकारी लोग अपने ही देश में अपनी ही मातृभाषा बोलने में शर्म महसूस करते हैं और अंग्रेजी बोलने में अपना गौरव मानते हैं। वे कितना संस्कृति के द्रोह और देशद्रोह का पाप कर रहे हैं, उन अहंकारियों को पता ही नहीं ! अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजों के पिट्ठू बनते  जा रहे हैं, बड़े शर्म की बात है !
राष्ट्रभाषा राष्ट्र की विचारधारा की अभिव्यक्ति मानी जाती है। लौकिक उन्नति का भी मूल स्वदेशी भाषाओं में ही रहता है। जापान, चीन, इंगलैंड, अमेरिका आदि सभी राष्ट सभी क्षेत्रों में अपनी भाषा का हो प्रधानता देते हैं। हमारे देश के राजनेता और उनके देश के राजनेता मिलते हैं तब हमारे राजनेता तो अंग्रेजी में बात करते हैं और उनके राजनेता उनकी राष्ट्रभाषा में। क्योंकि वे अपनी भाषा को राष्ट्र के स्वाभिमान का प्रतीक मानते हैं। आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल पाशा कितने दूरदृष्टिवाले रहे होंगे जिन्होंने सत्ता हाथ में आते ही राष्ट्रभाषा तय करने हेतु अधिकारियों की एक दिन की मोहलत ठुकराकर रात के बारह बजे ही घोषित कर दिया कि तुर्की की राष्ट्रभाषा तुर्की होगी।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 8, अंक 166
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सबसे उत्तम मार्गदर्शक



आप यह भली प्रकार जान लो कि कोई भी मनुष्य किसी के मार्गदर्शन बिना केवल अपने बल पर उन्नत नहीं बन सकता। आपका यह अनुभव है कि बाल्यकाल में बोलना आप अपने बल पर नहीं सीखे। माता-पिता आदि से सीखे। चलना भी किसी की मदद से ही सीखे। पढ़ना-लिखना शिक्षकों की मदद से सीखे। तो आनंदमय एवं सफल जीवन कैसे जीना तथा जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है व उसे कैसे पाना – यह अपने आप कैसे जान सकोगे ? इसके लिए भी किसी मार्गदर्शक की जरूरत है। एक ऐसे मार्गदर्शक, जो कर्तव्य-अकर्तव्य के सच्चे पारखी हों, वैदिक ज्ञान का सार जानने वाले व उसके अनुभवी हों, हमारे सच्चे हितैषी हों, हमारे प्रति करूणावान हों व हमें उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ने हेतु सबल सहारा प्रदान करने में समर्थ हों।
वेद भगवान के वचन हैं-
प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्।
यस्मिन्निन्द्रो वरूणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे।।
'सचमुच परमात्मा और ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ही स्पष्ट एवं प्रशंसनीय मार्गदर्शन देते हैं। उनके मार्गदर्शन में इन्द्रक, वरूण, मित्र और अर्यमा देवों का निवास होता है।'
(ऋग्वेदः1.40.5)
जीवन की समस्याओं से हतप्रभ हो इधर-उधर मत भटको, भगवान की शरण में जाओ। वे तुम्हें किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की शरण में जाने की प्रेरणा देंगे या पहुँचा देंगे, जिनकी सीख एवं दिव्य ज्योति तुमको प्रकाशमय कर देगी। आपके अबोध मन में जब भी कर्तव्य-अकर्तव्य का द्वन्द्व उठ खड़ा हो, आप अपने उन समर्थ मार्गदर्शक से उत्तर पाने की लिए जहाँ हो वहीं शांत हो जाओ, उनका सुमिरन करो, आर्त भाव से उन्हें मन-ही-मन प्रार्थना करो। आपको अवश्य मार्ग मिलेगा। वे आपके लिए मार्ग दिखाने वाले, हाथ पकड़कर उस पर ले चलने वाले एवं सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य से मिलाने वाले – सब कुछ बनने के लिए तैयार हैं। बस, आप उनके सान्निध्य में आपकी जो ऊँची स्थिति हो जाती है, उसे याद रखकर अपनी श्रद्धा को अधिकाधिक सुदृढ़ बनाते जाना। उनके आज्ञापालन में तत्पर बनते जाना। आज्ञापालन ही श्रद्धा का मापदंड है।
वेद भगवान के अनुसार ब्रह्मज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन में इन्द्र, वरुण, मित्र और अर्यमा देवों का मार्गदर्शन भी निहित होता है। इन्द्र ऐश्वर्य, शक्ति, प्रगति और विजय सूचक देता है। वरुण पाप-विमोचक शक्ति का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। मित्र मैत्री और आपसी स्नेह-सौहार्द के सूचक हैं। अर्यमा ऊँच-नीच विभेद व्यवहार और न्यायकारिता के देवता हैं। ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के मार्गदर्शन में उपर्युक्त सभी प्रकार की सीख स्वतः समाविष्ट होती है। अतः दैनंदिन जीवन में ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों की सीख के अनुसार चलकर आप आत्मोन्नति कर लो। इससे आप हर क्षेत्र में विजय प्राप्त कर सकोगे, पाप से बच जाओगे, जन-जन के प्रति मैत्रीभाव से परिपूर्ण बनोगे और न्याय का आदर्श प्रस्तुत कर सकोगे। इतना ही नहीं, यदि आप उनकी कृपा को पूर्णरूप से झेल लोगे तो मनुष्य-जीवन का सुफल (परमात्म-साक्षात्कार) प्राप्त कर लोगे। आत्मोन्नति के लिए उनके उपदेशों को अपने जीवन का कानून बना लेना चाहिए।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2011क, पृष्ठ संख्या 2, अंक 166
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पापनाशिनी, पुण्यप्रदायिनी गंगा



(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)
(गंगा जयंतीः 10 मई 2011)
जैसे मंत्रों में ॐकार, स्त्रियों में गौरीदेवी, तत्त्वों में गुरुतत्त्व और विद्याओं में आत्मविद्या उत्तम है, उसी प्रकार सम्पूर्ण तीर्थों में गंगातीर्थ विशेष माना गया है। गंगाजी की वंदना करते हुए कहा गया हैः
संसारविषनाशिन्यै जीवनायै नमोऽस्तु ते।
तापत्रितयसंहन्त्र्यै प्राणेश्यै ते नमो नमः।।
'देवी गंगे ! आप संसाररूपी विष का नाश करने वाली है। आप जीवनरूपा है। आप आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का संहार करने वाली तथा प्राणों की स्वामिनी है। आपको बार-बार नमस्कार है।'
(स्कंद पुराण, काशी खं.पू. 27.160)
जिस दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई वह दिन गंगा जयंती (वैशाख शुक्ल सप्तमी) और जिस दिन गंगाजी पृथ्वी पर अवतरित हुई वह दिन 'गंगा दशहरा' (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) के नाम से जाना जाता है। इन दिनों में गंगा जी में गोता मारने से विशेष सात्त्विकता, प्रसन्नता और पुण्यलाभ होता है। वैशाख, कार्तिक और माघ मास की पूर्णिमा, माघ मास की अमावस्या तथा कृष्णपक्षीय अष्टमी तिथि को गंगास्नान करने से भी विशेष पुण्यलाभ होता है।
मैं हरिद्वार कुंभ पर्व पर गंगाजी के किनारे सुबह-सुबह टहलने जाता था। गंगाजी की एक धारा पार करके दूसरी धारा के बीच में एक टापू है, उस पर टहलता था। एक दिन मुझे वहाँ एक साधू मिले, बोलेः "बापू जी ! मैं पहले आपके आश्रम में भोजन करने आता था और मुझे आश्रम की कढ़ी बहुत अच्छी लगती थी।..." बातें करते-करते उसने बताया कि "मैं एक रात को गंगाजी के किनारे बैठा था तो लगभग हजार मीटर ऊपर से एक प्रकाश का पुंज नीचे आया और गंगाजी के जल में फैंककर विलय हो गया।"
मैंने पूछाः "दिन कौन सा था?"
उसने कहाः "15 मार्च (2010), सोमवती अमावस्या थी।"
अपने शास्त्रों में तो बताया ही गया है कि सोमवती अमावस्य़ा, रविवारी सप्तमी, मंगलवारी चतुर्थी और बुधवारी अष्टमी इन तिथियों पर किये गये जप, तप, मौन, ध्यान का प्रभाव अक्षय होता है। इन सभी दिनों-त्यौहारों पर तथा कुंभ पर्व पर स्नान आदि करने से मानवीय जीवन में आध्यात्मिक ओरा (आभा) का संचार होने की व्यवस्था है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, पृष्ठ संख्या 11, अप्रैल 2011, अंक 166
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