मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है, बड़े पुण्य-संचय से भगवान की कृपा होने पर ही यह प्राप्त होता है। इसका एक-एक क्षण भगवत्स्मरण में और भगवान की सेवा में बीतना चाहिए, पर बड़े ही दुःख की बात है कि हमारा बहुत सा समय यूँ ही बीत गया और अब भी बीता ही जा रहा है।
अतः हम लोगों को अपने समय का सदुपयोग करना चाहिए, नहीं तो अंत में हमको घोर पश्चाताप करना पड़ेगा। इस विषय में श्रुति हमें चेतावनी देती हुई कहती हैः
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
केनोपनिषद् 2.5
'यदि इस मनुष्य शरीर में परब्रह्म (परमात्म-तत्त्व) को जान लिया तब तो बहुत कुशल है, यदि इस शरीर के रहते-रहते उसे नहीं जान पाया तो महान विनाश है। यही सोचकर बुद्धिमान पुरुष प्राणिमात्र में परब्रह्म पुरुषोत्त्म को समझकर इस लोक से प्रयाण करके अमर (परमात्म-पद को प्राप्त) हो जाते हैं।'
इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को उचित है कि समस्त प्राणियों में परमात्मा के स्वरूप का चिंतन करते हुए अपना जीवन सफल बनाये। मनुष्य जीवनि बहुत ही दुर्लभ है, वह ईश्वर की कृपा से हमें प्राप्त हो गया है। ऐसा सुअवसर पाकर जीवन के महत्त्वपूर्ण समय का एक क्षण भी हमें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। जिस काम के लिए हम आये हैं, उसे सबसे पहले करना चाहिए। जो काम हमारे बिना हमारी जीवित अवस्था में दूसरे कर सकते हैं, वह काम उन्हीं से करा लेना चाहिए। उस काम में अपना अमूल्य समय नहीं लगाना चाहिए। और जो काम हमारे मरने के बाद हमारे उत्तराधिकारी कर सकते हैं, चाहे वह कैसा भी जरूरी क्यों न हो, उस काम में भी अपना अमूल्य समय नहीं लगाना चाहिए। पर जो काम हमारे बिना न हमारे जीवन काल में और न मरने पर ही दूसरे किसी के द्वारा सम्पन्न हो सकता है तथा जो हमारा इस लोक व परलोक में परम कल्याण करने वाला है और जिस काम के लिए ही हमें यह मनुष्य-शरीर मिला है एवं जिस काम में थोड़ी भी कमी रहने पर हमें पुनः जन्म लेना पड़ सकता है, साथ ही जिस कार्य की पूर्ति हमारे बिना कभी किसी दूसरे से हो ही नहीं सकती, उस काम को तो सबसे अधिक महत्त्व का और सबसे अधिक जरूरी समझकर तत्परता के साथ सबसे पहले हमें करना ही चाहिए। वह काम है परमात्मा की प्राप्ति। उसकी प्राप्ति का उपाय है ईश्वर की भक्ति, उत्तम गुणों का संग्रह, उत्तम आचरणों का सेवन, संसार से वैराग्य और उपरति, सत्पुरुषों का संग और सत्शास्त्रों का स्वाध्याय, परमात्मा के तत्त्व का यथार्थ ज्ञान, मन और इन्द्रियों का संयम, दुःखी और अनाथों की निष्काम सेवा आदि आदि। अतः मन को व्यर्थ चिंतन से हटाकर भगवान के चिंतन में लगाना चाहिए। भगवान के जप ध्यान के समय हमें जो निद्रा व आलस्य घेर लेते हैं, उनको हटाने के लिए लम्बा श्वास ले के 10-15 आभ्यंतर कुंभक व बहिर्कुम्भक करें और ॐकार का प्लुत व दीर्घ उच्चारण करें।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 5, अंक 160
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