शनिवार, 4 दिसंबर 2010

विज्ञान ने भी स्वीकार किया अध्यात्म का स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध



आध्यात्मिकता का स्वास्थ्य से गहरा संबंध है। बच्चों के मामले में तो यह बात सौ फीसदी सच साबित हुई है। फ्लोरिडा में फोर्ट लॉरलडेल स्थित नोवा साउथ ईस्टर्न यूनिवर्सिटी में साइकॉलोजी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. बैरी नोरेनबर्ग हाल ही में किये गये धार्मिक आस्था और स्वास्थ्य के बीच के संबंधों के अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि भगवान को मानने वाले और माता-पिता व संबंधियों (अभिभावकों) के साथ मंदिर, आश्रम, गुरूद्वारे जैसे धार्मिक स्थलों में जाने वाले बच्चे ज्यादा स्वस्थ रहते हैं।
अब तक इस दिशा में हुए अध्ययन से यह तो साबित हो चुका है कि ईश्वर में श्रद्धा रखने और पूजा पाठ करने से हृदय रोग, सिरोसिस, एंफिसाइमा और दिल के दौरों की आशंका को कम किया जा सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि समय निकाल कर मंदिर जाने और रोज प्रार्थना करने से मन को तो सुकून मिलता ही है, साथ रोगों से भी बचाव होता है। यहाँ तक कि जो बीमार होते हैं, उनके स्वस्थ होने की दर भी तेज हो जाती है। दरअसल बड़ी उम्र के लोगों पर तो इस तरह के कई अध्ययन हो चुके हैं, किंतु प्रार्थना और भगवान भरोसे का बच्चों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है, इस ओर अभी काफी कम लोगों का ध्यान गया है।
डॉ. बैरी कहते हैं- जो बच्चे धार्मिक जगहों पर जाते हैं, उनमें वहाँ न जाने वाले बच्चों के मुकाबले ज्यादा टी-सेल्य पाये गये, जो उत्तम स्वास्थ्य से संबंध रखते हैं।
धार्मिक आस्था और बीमारी के बीच संबंधों के अध्ययन के लिए इंड स्टेज ऑफ रीनल डिसीज के शिकार 6 से 20 साल के 16 बच्चों पर अध्ययन किया गया, जो डायलिसिस पर थे। आध्यात्मिकता के प्रति उनके व्यवहार व नजरिये पर उनसे सवाल-जवाब किये गये। बच्चों के जवाब को ब्लड लेवल, ब्लड यूरिया नाइट्रोजन, लिंफोसाइटस, पैराथायरॉइड हार्मोन, एल्ब्युमिन, फॉस्फोरस और यूरिया रिडक्शन रेसियो से जोड़कर देखा गया। जो बच्चे भगवान में विश्वास रखते थे, उनके ब्लड यूरिया नाइट्रोजन (BUN) का लेवल सामान्य पाया गया व अन्य परीक्षणों में भी उनकी स्थिति बेहतर पायी गयी।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 10, अंक 160
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वैज्ञानिक बनने के गुण


एक बच्चे को बाल्यावस्था से ही वैज्ञानिक बनने की लगन थी लेकिन उसके विकास में सबसे बड़ी बाधा थी उसकी गरीबी। उसकी माँ ने सोचा कि गरीबी के चलते उसके पुत्र की यह अभिलाषा कभी पूर्ण नहीं हो सकती। अतः वह अपने बच्चे को एक वैज्ञानिक के पास विज्ञान की शिक्षा के लिए ले गयी।
उस वैज्ञानिक ने बच्चे के हाथ में झाड़ू पकड़ायी और प्रयोगशाला की सफाई का कार्य सौंप दिया। बच्चे ने खूब लगनपूर्वक प्रयोगशाला की सफाई की और छोटी से छोटी चीज को भी सँभालकर साफ किया और उसे उसकी जगह पर रखा। वैज्ञानिक ने बच्चे की लगन को देखकर उसकी माँ से कहाः "इसे आप मेरे पास छोड़ दीजिये। इसमें वैज्ञानिक बनने के गुण हैं, एक दिन यह अवश्य ही वैज्ञानिक बनेगा।"
दक्षता, लगन व स्वच्छता ऐसे गुण हैं जिनसे किसी भी व्यक्ति में महानता की अभिवृद्धि होती है। वही बच्चा आगे चलकर प्रसिद्ध वैज्ञानिक थामस एल्वा एडिसन बना।
जो व्यक्ति किसी भी कार्य को बड़ी लगन, सावधानी, तत्परता एवं दक्षतापूर्वक करते हैं, वे अवश्य महान कार्य करने में सफल हो जाते हैं। यदि कार्य दक्षता के साथ एकमात्र ईश्वर की प्रसन्नता पाने का लक्ष्य हो, तब तो भगवत्प्राप्ति भी सुगम हो जाती है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 14, अंक 160
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सात्त्विक आहार और संयम लम्बी उम्र देता पर खा-खा-खा... चटोरापन और विकारी जीवन, तामसी जीवन छोटी उम्र में ही बुढ़ापा दे देता है।
जैसा संग वैसा रंग। विकारी लोगों के संग में रहेंगे तो विकारों की बात आयेगी। संतों के संग में रहेंगे तो भगवान की बात होगी।
भगवन्नाम जप में अदभुत शक्ति है और वह गुरूदीक्षा के द्वारा चेतन हो जाता है। भगवान ने तो गीध, अजामिल, शबरी को, गिने गिनाये को तारा लेकिन भगवान के नाम ने बेशुमार, अनगिनत खलों को उतार दिया।
पूज्य बापू जी
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जो जगत से सुखी होना चाहता है वह जगत से लेकर संतुष्ट होगा और जो जगदीश्वर में सुखी है वह देकर संतुष्ट होगा। कितना फासला है ! लेने वाला सब कुछ करेगा – मीठी वाणी, दाँव पेंच.... जो भी जगत से लेने की इच्छा से भरा है, वह जिस किसी से मिलेगा, कुछ न कुछ नाटकबाजी, कुछ न कुछ धोखेबाजी करके लेगा। ऐसा व्यक्ति बेईमान होता है, उस पर ज्यादा भरोसा नहीं हो पाता किंतु जो अपने-आप में संतुष्ट है, वह दूसरों को सुख, शांति, मधुरता देकर संतुष्ट होगा।
मनुष्य जीवन में ही स्वभाव सुधर सकता है। पशु योनि में बिगड़ भले जाये, सुधरता नहीं है।
पूज्य बापू जी
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पूर्ण समर्पण

माता कैकेयी की इच्छा और पिता दशरथ जी के दिये वचन को पूरा करने के लिए श्री रामचन्द्र जी वन जाने को तैयार हुए। उनकी वन जाने की बात सुनकर लक्ष्मण जी ने भी साथ चलने की आज्ञा माँगी। भगवान श्रीरामजी ने कहाः
"मातु पिता गुरू स्वामी सिख
सिर धरि करहिं सुभायैं।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर
नतरू जनमु जग जायैं।।
'जो लोग माता-पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो संसार में उनका जन्म व्यर्थ ही है।'
भैया ! मैं तुम्हें साथ ले जाऊँगा तो अयोध्या अनाथ हो जायेगी। माता, पिता, परिवार, प्रजा आदि सभी को बड़ा दुःख होगा। तुम यहाँ रहकर सबको संतुष्ट करो, नहीं तो बड़ा दोष होगा।"
जो भगवान का परम भक्त होता है उससे भगवान से एक पल की भी दूरी सहन नहीं होती। लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम के परम भक्त थे, श्रीरामजी की ये बातें सुनकर कहने लगेः "हे स्वामी ! आपने मुझे बड़ी अच्छी सीख दी परंतु मुझे तो अपने लिए वह असम्भव ही लगी। यह मेरी कमजोरी है। शास्त्र और नीति के तो वे ही नर श्रेष्ठ अधिकारी हैं, जो धैर्यवान और धर्म धुरंधर हैं। मैं तो प्रभु के स्नेह से पाला-पोसा हुआ छोटा बच्चा हूँ। भला, हंस भी कभी मंदारचल या सुमेरू को उठा सकता है। मैं आपको छोड़कर किसी भी माता पिता को नहीं जानता।"
धन्य हैं लक्ष्मण जी की ईश्वरनिष्ठा ! जो माता पिता, स्वजन आदि सत्संग या भगवान के रास्ते ईश्वर, के रास्ते जाने से रोकते हैं, उनकी बात नहीं माननी चाहिए।
संत तुलसीदास जी के वचन हैं कि-
जाके प्रिय न राम – बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम,
जद्यपि परम स्नेही।।
भागवत(5.5.18) में भी कहा हैः
गुरूर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्
पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।
दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या-
न्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्।।
'जो अपने प्रिय संबंधी को भगवदभक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरू, गुरू नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।'
लक्ष्मण जी ने कहा कि "यह मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें। जगत में जहाँ तक स्नेह, आत्मीयता, प्रेम और विश्वास का संबंध वेदों ने बताया है, वह सब कुछ मेरे तो बस केवल आप ही हैं। आप दीनबंधु हैं, हृदय की जानने वाले हैं। धर्म-नीति का उपदेश तो उसे कीजिये, जिसको कीर्ति, विभूति या सदगति प्यारी लगती है। जो मन, वचन, कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, कृपा सिंधु ! क्या यह भी त्यागने योग्य है ?"
दया के सागर श्री रामचन्द्रजी का हृदय भाई के कोमल व नम्रतायुक्त वचन सुनकर छलक उठा। जब भक्त को भगवान से दूरी सहन नहीं होती तो भगवान भी उससे दूर नहीं रह सकते। उन्होंने लक्ष्मण जी को हृदय से लगा लिया और सुमित्रा मैया से आज्ञा लेकर साथ चलने की अनुमति दे दी।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 6, अंक 160
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मनुष्य जीवन की दुर्लभता और हमारा कर्तव्य - श्री दयाल जी गोयन्दका

मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है, बड़े पुण्य-संचय से भगवान की कृपा होने पर ही यह प्राप्त होता है। इसका एक-एक क्षण भगवत्स्मरण में और भगवान की सेवा में बीतना चाहिए, पर बड़े ही दुःख की बात है कि हमारा बहुत सा समय यूँ ही बीत गया और अब भी बीता ही जा रहा है।
अतः हम लोगों को अपने समय का सदुपयोग करना चाहिए, नहीं तो अंत में हमको घोर पश्चाताप करना पड़ेगा। इस विषय में श्रुति हमें चेतावनी देती हुई कहती हैः
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
केनोपनिषद् 2.5
'यदि इस मनुष्य शरीर में परब्रह्म (परमात्म-तत्त्व) को जान लिया तब तो बहुत कुशल है, यदि इस शरीर के रहते-रहते उसे नहीं जान पाया तो महान विनाश है। यही सोचकर बुद्धिमान पुरुष प्राणिमात्र में परब्रह्म पुरुषोत्त्म को समझकर इस लोक से प्रयाण करके अमर (परमात्म-पद को प्राप्त) हो जाते हैं।'
इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को उचित है कि समस्त प्राणियों में परमात्मा के स्वरूप का चिंतन करते हुए अपना जीवन सफल बनाये। मनुष्य जीवनि बहुत ही दुर्लभ है, वह ईश्वर की कृपा से हमें प्राप्त हो गया है। ऐसा सुअवसर पाकर जीवन के महत्त्वपूर्ण समय का एक क्षण भी हमें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। जिस काम के लिए हम आये हैं, उसे सबसे पहले करना चाहिए। जो काम हमारे बिना हमारी जीवित अवस्था में दूसरे कर सकते हैं, वह काम उन्हीं से करा लेना चाहिए। उस काम में अपना अमूल्य समय नहीं लगाना चाहिए। और जो काम हमारे मरने के बाद हमारे उत्तराधिकारी कर सकते हैं, चाहे वह कैसा भी जरूरी क्यों न हो, उस काम में भी अपना अमूल्य समय नहीं लगाना चाहिए। पर जो काम हमारे बिना न हमारे जीवन काल में और न मरने पर ही दूसरे किसी के द्वारा सम्पन्न हो सकता है तथा जो हमारा इस लोक व परलोक में परम कल्याण करने वाला है और जिस काम के लिए ही हमें यह मनुष्य-शरीर मिला है एवं जिस काम में थोड़ी भी कमी रहने पर हमें पुनः जन्म लेना पड़ सकता है, साथ ही जिस कार्य की पूर्ति हमारे बिना कभी किसी दूसरे से हो ही नहीं सकती, उस काम को तो सबसे अधिक महत्त्व का और सबसे अधिक जरूरी समझकर तत्परता के साथ सबसे पहले हमें करना ही चाहिए। वह काम है परमात्मा की प्राप्ति। उसकी प्राप्ति का उपाय है ईश्वर की भक्ति, उत्तम गुणों का संग्रह, उत्तम आचरणों का सेवन, संसार से वैराग्य और उपरति, सत्पुरुषों का संग और सत्शास्त्रों का स्वाध्याय, परमात्मा के तत्त्व का यथार्थ ज्ञान, मन और इन्द्रियों का संयम, दुःखी और अनाथों की निष्काम सेवा आदि आदि। अतः मन को व्यर्थ चिंतन से हटाकर भगवान के चिंतन में लगाना चाहिए। भगवान के जप ध्यान के समय हमें जो निद्रा व आलस्य घेर लेते हैं, उनको हटाने के लिए लम्बा श्वास ले के 10-15 आभ्यंतर कुंभक व बहिर्कुम्भक करें और ॐकार का प्लुत व दीर्घ उच्चारण करें।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 5, अंक 160
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कर्तृत्व-अभिमान रखना पाप है

एक बार राजा जनक  के यहाँ एक विद्वान आया और उसने अपने आने की खबर राजा को भेजी। वह सोच रहा था कि राजा अब मेरी पूजा करेंगे। उसका यह भाव समझकर राजा जनक ने संदेशा भेजा कि 'आप अकेले आते तो अच्छा होता।' विद्वान को राजा जनक के संदेश का रहस्य समझ में आया। वह वहीं से वापस लौटा और अभिमान को, कर्ताभाव को बनाने रखने वाली एवं पुष्ट करने वाली मनमुख साधना छोड़कर किन्हीं ब्रह्मवेत्ता सदगुरू की शरण में गया। उसी प्रकार यदि हमें भी भगवान के निकट जाना हो, सदगुरू के द्वार जाना हो तो हम अपना अभिमान, अपनी सज्जा, अपना आडम्बर आदि पीछे छोड़कर ही जायें।
किसी साहूकार के यहाँ किसी के जेवर गिरवी रखे हों तो साहूकार द्वारा उन जेवरों को अपने घर की शादी में उपयोग में लाना अन्याय होगा। उसी प्रकार भगवान की दी अमानत मानकर पुत्रादि की रक्षा करना तो उचित होगा लेकिन उन्हें अपना मानकर सुख-दुःख भोगना जरूर पाप होगा।
नारियल में पानी जितना मीठा होता है उतना ही खोपरे में स्वाद कम होता है, वैसे ही जितनी विद्वत्ता अधिक उतनी निष्ठा कम होती है। ज्यादा पढ़ो मत, जो कुछ थोड़ा पढ़ो उस पर चिंतन करो और उसका आशय कृति में उतारो। जैसे पिता जी का पत्र पढ़ने के बाद उसके आशय के अनुसार हम आचरण करते हैं, वैसे ही ग्रंथ पढ़ने के बाद कृति, आचरण करना प्रारंभ करें।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 8, अंक 160
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कलियुग में परमात्मा प्राप्ति शीघ्र कैसे ?


कहते हैं कि सतयुग में वर्षों के पुण्यों से परमात्म प्राप्ति होती थी। द्वापर में यज्ञ से होती थी, ध्यान से होती थी। कलियुग के लिए कहा गया हैः
दानं केवलं कलियुगे।
अथवा
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।
गावत नर पावहिं भव थाहा।।
परंतु शास्त्र का कोई एक हिस्सा लेकर निर्णय नहीं लेना चाहिए। शास्त्र के तत्मत से वाकिफ होना चाहिए। यह भी शास्त्र ही कहता है कि
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।
गयानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।
(श्री राम चरित. बा. कां. 21.3 व 4)
राम के, परमात्मा के भक्त चार प्रकार के हैं। चारों भगवन्नाम का आधार लेते हैं, श्रेष्ठ हैं परंतु ज्ञानी तो प्रभु को विशेष प्यारा है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
'इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है।'
(गीताः 4.38)
दूसरे युगों में जप से, यज्ञ से परमात्म प्राप्ति होती थी तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तत्त्वज्ञान का उपदेश क्यों दिया ? उद्धव को तत्त्वज्ञान क्यों दिया ?
जनसाधारण के लिए जप अपनी जगह पर ठीक है, हवन अपनी जगह पर ठीक है किंतु जिनके पास समझ है, बुद्धि है, वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार साधन करके पार हो जाते हैं। जनक अष्टावक्र से तत्त्वज्ञान सुनकर पार हो गये।
वह भी जमाना था कि लोग 12-12 वर्ष, 25-25 वर्ष जप तप करते थे, तब कहीं उनको सिद्धी मिलती थी पर कलियुग में सिद्धि जल्दी हो जाती है।
एक आदमी को पेट में कुछ दर्द हुआ। वह बड़ा सेठ था। वह वैद्य के पास दवा लेने गया। वैद्य ने देखा कि यह अमीर आदमी है, इसको सस्ती दवा काम में नहीं आयेगी।
वैद्य ने कहाः "ठहरो जरा ! दवा घोंटनी है, सुवर्णभस्म डालना है, बंगभस्म डालना है, थोड़ा समय लगेगा। बढ़िया दवा बना देता हूँ।"
काफी समय उसको रोका, बाद में दवा दी। उसने खायी और वह ठीक हो गया।
वैद्य ने पूछाः "अब कैसा है ?"
"अच्छा है... आराम हो गया। कितने पैसे ?"
"केवल ग्यारह सौ रूपये।"
सेठ ने दे दिये। वैसे का वैसा रोग एक गरीब को हुआ और वह भी उसी वैद्य के पास आया।
बोलाः "पेट दुःखता है।"
वैद्य ने नाड़ी देखकर कहाः "कोई चिंता की बात नहीं, यह लो पुड़िया। एक दोपहर को खाना, एक शाम को खाना, ठीक हो जायेगा।"
"कितने पैसे ?"
"पचास पैसे दे दो।"
उसने दे दिये। दो पुड़िया खाकर वह ठीक हो गया। मर्ज वही का वही, वैद्य भी वही का वही, लेकिन एक से ग्यारह सौ रूपये लिये और समय भी ज्यादा लगाया तो दूसरे से पचास पैसे लिए और तुरंत दवा दे दी। ऐसे ही वैद्यों का वैद्य परमात्मा वही का वही है। हमारे अज्ञान का मर्ज भी वही का वही है। पहले के जमाने में लोगों के पास इतना समय था, इतना शुद्ध घी, दूध था, इतनी शक्ति थी तो लम्बे-लम्बे उपचार करने के बाद उनका दर्द मिटता था। अभी वह दयालु भगवान कहता है कि आ जाओ भाई !ले जाओ जल्दी जल्दी।
अष्टावक्र महाराज बोलते हैं कि 'श्रवण मात्रेण।' सुनते सुनते भी आत्मज्ञान हो सकता है। पहले कितना तप करने के बाद बुद्धि शुद्ध, स्थिर होती थी, वह अब तत्त्वज्ञान सुनते सुनते हो सकती है। ऐसा नहीं है कि केवल उस समय सतयुग था, अभी नहीं है। सत्त्वगुण में तुम्हारी वृत्ति है तो सतयुग है। रजोमिश्रित सत्त्वगुण में वृत्ति है तो त्रेतायुग है। तमोमिश्रित रजोगुण में वृत्ति है तो द्वापर है और तमोगुण में वृत्ति है तो कलियुग है।
सतयुग में भी कलियुग के आदमी थे। श्रीराम थे तब रावण भी था। श्रीकृष्ण थे तब कंस भी था। अच्छे युगों में सब अच्छे आदमी ही थे, ऐसी बात नहीं है। बुरे युग में सब बुरे आदमी हैं, ऐसी बात भी नहीं। अतः दैवी संपदा के जो सदगुण हैं- निर्भयता, अंतःकरण की सम्यक् शुद्धि, ज्ञान में स्थिति, स्वाध्याय, शुद्धि, सरलता, क्षमा आदि छब्बीस सदगुण अपने जीवन में लायें और आत्मवेत्ता महापुरुषों का संग करें तो कलियुग में शीघ्र परमात्म प्राप्ति हो जायेगी। दैवी सम्पदा के सदगुण अपने जीवन में लाने वाला आदमी धन ऐश्वर्य में आगे बढ़ाना चाहे तो बढ़ सकता है, यश-सामर्थ्य में चमकना चाहे तो भी चमक सकता है और भगवत्प्राप्ति करना चाहे तो भी कर सकता है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 160
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जैसी पात्रता वैसा परिणाम


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
पाँच अंधों की कहानी तुमने सुनी होगी। उन्होंने 'हाथी कैसा होता है' – यह जानना चाहा। एक ने हाथी के पैर को छूकर कहाः 'हाथी तो खम्भे जैसा है।' दूसरे ने कहाः 'पूँछ जैसा है', तीसरे ने कहाः 'सूँड जैसा है', चौथे ने कहाः 'गड्डे जैसा है', पाँचवें ने कान छूकर कहा कि 'सूप जैसा है'। अब जिन्होंने सच्चे हाथी को जानना चाहा और आँख नहीं होने से हाथी का सही वर्णन नहीं कर पाये, वे लोग चित्र के हाथी का क्या वर्णन कर पायेंगे ! उसी प्रकार कोई दुनिया के सब शास्त्र पढ़ ले, दुनिया के सब रीति रिवाज निभा ले फिर भी उसे बिना सदगुरू के परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हो सकता है। समुद्र का पूरा पानी एक आदमी की प्यास बुझा नहीं सकता है। पूरा समुद्र पड़ा है लेकिन समुद्र किनारे आदमी प्यासे होते हैं क्योंकि वे समुद्र का पानी पी नहीं सकते। उसकी न दवाई बनती है, न खिचड़ी बनती है, न आँख में डाला जाता है।
दवाई की पूरी दुकान एक आदमी का रोग दूर नहीं कर सकती है। वैद्य हो, मरीज को क्या बीमारी है यह उसे पता हो और कौन सी दवा कितना काम करेगी इस प्रकार समझदारी से विचारकर यदि वह उसी दुकान से दवाई उठाकर ओर खुराक दे दे तो मरीज ठीक हो जायेगा। ऐसे ही शास्त्र, पद्धतियाँ, रीति-रिवाज सब दवाइयों की दुकानें हैं और सदगुरू हैं वैद्य।
सारा समुद्र खारा है। उस जल को मेघ उठाता है, फिर बरसात करता है। खारापन हटा देता है और साररूप अमृत जैसा पानी दे देता है। फिर वह पानी अमृत जैसा ही क्यों न हो, जैसा पात्र है वैसा उसका परिणाम आता है। सड़कों पर बरसता है लीद बह जाती है, डीजल के दाग थोड़े धुल जाते हैं। खेत में पड़ता है तो ज्वार-बाजरे की फसल हो जाती है, गन्ने की फसल में पड़ता है तो गन्ना बन जाता है, स्वाति नक्षत्र में सीप में पड़ता है तो मोती बन जाता है, गटर में पड़ता है तो कीचड़ बन जाता है.... जैसा पात्र वैसा उसका रूप हो जाता है।
ऐसे ही सदगुरूओं की वाणी जलवृष्टि – न्यायेन होती है। अथाह शास्त्रों के सागर से वे ज्ञानामृत उठाते हैं फिर बरसाते हैं। उसे ग्रहण करने वालों की जैसी पात्रता होती है, वैसा वैसा परिणाम आता है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 18, अंक 160
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भगवदभक्ति का रहस्य - स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज

भगवदभक्ति का रहस्य
स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज
भक्ति भक्त भगवंत गुरु चतुर नाम बपु एक।
इनके पद बंदन किएँ नासत बिघ्न अनेक।।

भक्ति का मार्ग बताने वाले संत 'गुरु', भजनीय 'भगवान', भजन करने वाला 'भक्त' तथा संतों के उपदेश के अनुसार भक्त की भगवदाकार वृत्ति 'भक्ति' है। ये नाम से चार हैं किंतु तत्त्वतः एक ही हैं।

जो साधक दृढ़ता के साथ भगवान के नाम का जप और स्वरूप का ध्यानरूप भक्ति करते हुए तेजी से चलता है, वही भगवान को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
इस भगवदभक्ति की प्राप्ति के अनेक साधन बताये गये हैं। उन साधनों में मुख्य हैं संत महात्माओं की कृपा और उनका संग। श्रीरामचरितमानस में कहा हैः

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।
(श्री रामचरित. उ.कां. 44.3)
भगति तात अनुपम सुखमूला।
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला।।
(श्रीरामचरित. अर.कां. 15.2)

उन संतों का मिलन भगवत्कृपा से ही होता है। श्री गोस्वामी जी कहते हैं-
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही।
चितवहिं राम कृपा करि जेही।
(श्रीरामचरित. उ.कां. 68.4)
...बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।
...सतसंगति संसृति कर अंता।

असली भगवत्प्रेम का नाम ही भक्ति है। इस प्रकार के प्रेम की प्राप्ति संतों के संग से अनायास ही हो जाती है क्योंकि संत-महात्माओं के यहाँ परम प्रभु परमेश्वर के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य की कथाएँ होती रहती हैं। भगवत्कथा अनेक जन्मों की अनंत पापराशि का नाश करने वाली एवं हृदय और कानों को अतीव आनंद देने वाली है। यज्ञ, दान, तप, व्रत, तीर्थ आदि बहुत परिश्रम-साध्य पुण्य-साधनों के द्वारा भी वह लाभ नहीं प्राप्त होता, जो कि सत्संग से अनायास ही हो जाता है, क्योंकि प्रेमी संत-महात्माओं के द्वारा कथित भगवत्कथा के श्रवण से जीव के पापों का नाश हो जाता है। इससे अंतःकरण अत्यन्त निर्मल होकर भगवान के चरणकमलों में सहज ही श्रद्धा-प्रीति उत्पन्न हो जाती है। भक्ति का मार्ग बताने वाले संत ही भक्तिमार्ग के गुरू हैं।
इस जीव को संसार के किसी भी उच्च से उच्च पद या पदार्थ की प्राप्ति क्यों न हो जाये, इसकी भूख तब तक नहीं मिटती, जब तक कि यह अपने परम आत्मीय भगवान को प्राप्त नहीं कर लेता, क्योंकि भगवान ही एक ऐसे हैं जिनसे सब तरह की पूर्ति हो सकती है। उनके सिवा सभी अपूर्ण हैं। पूर्ण केवल एक ही हैं और वे पूर्ण होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति बिना कारण ही प्रेम और कृपा करने वाले परम सुहृद हैं। साथ ही वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान भी हैं। कोई सर्वसुहृद तो हो पर सब कुछ न जानता हो, वह हमारे दुःख को न जानने के कारण उसे दूर नहीं कर सकता और यदि सब कुछ जानता हो पर सर्वसमर्थ न हो तो भी असमर्थता के कारण दुःख दूर नहीं कर सकता एवं सब कुछ जानता भी हो और समर्थ भी हो, तब भी यदि सुहृद न हो तो दुःख देखकर भी उसे दया नहीं आती, जिससे वह हमारा दुःख दूर नहीं कर सकता। किंतु भगवान में उपर्युक्त तीनों बातें एक साथ एकत्रित हैं।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 160
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ये कैसा है जादू समझ में न आया, गंदी आदत को पल भर में छुड़ाया


मैं 2005 से पूज्य  संतश्री  आसाराम  बापूजी  प्रणित 'बाल संस्कार केन्द्र' चला रही हूँ, जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ है। मेरा जो समय पहले इधर-उधर की व्यर्थ बातों में जाता था, वह अब सेवा में लगता है, जिससे मुझे बहुत शांति का एहसास होता है। बाल संस्कार केन्द्र चलाने से बच्चों जैसी निखालिसता, निर्दोषता, सरलता जैसे दैवी गुण सहज में आने लगते हैं।
हमारे बाल संस्कार केन्द्र में रीतू बैरागी नाम की एक छठी कक्षा की बच्ची आती थी। वह दिन भर में 10-15 गुटखे के पैकेट खा जाती थी। एक दिन वह बाल संस्कार केन्द्र में लगे पूज्य बापू जी के श्रीचित्र को देखते हुए कहने लगी की 'बापू जी ! मेरी गुटखा खाने की आदत छुड़ा दो, तभी मैं आप पर विश्वास कर पाऊँगी।' उस बच्ची पर गुरुदेव की ऐसी कृपा हुई कि उसी दिन से उसके मन में गुटखे के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। उसका गुटखा खाना छूट गया। अभी 2 वर्ष से उसने गुटखे की ओर देखा तक नहीं है।
पूज्य बापू जी की करूणा-कृपा का वर्णन मैं किन शब्दों में करूँ, जिनकी कृपा से हमको घर बैठे ऐसी सेवा करने का अवसर मिल रहा है ! बाल संस्कार केन्द्र चलाने से बच्चों को तो लाभ मिलता ही है, साथ ही चलाने वालों को भी बहुत-बहुत लाभ होता है। पूज्य श्री के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन !
पुष्पा ज्योतिषी, मण्डला (म.प्र.)., मो. 07642251968
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 14, अंक 160
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तुलसी के लाभकारी प्रयोग



कान के रोगों में- तुलसी की पत्तियों को ज्यादा मात्रा में लेकर सरसों के तेल में पकायें। पत्तियाँ जल जाने पर तेल उतारकर छान लें। ठण्डा होने पर इस तेल की 1-2 बूँद कान में डालने से कान के रोगों में लाभ होता है।
खाँसीः तुलसी के रस में अदरक का रस व शहद मिलाकर चाटने से सभी प्रकार की खाँसी में लाभ होता है।
तुलसी की मंजरी का चूर्ण बनाकर शहद के साथ चाटने से कफ, खाँसी दूर होगी तथा सीने की खरखराहट मिटेगी।
तुलसी व अडूसे के पत्तों का रस बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से पुरानी खाँसी भी ठीक हो जाती है।
कीड़े, मच्छर काटने परः तुलसी के पत्तों का एक चम्मच रस पानी में मिलाकर पियें एवं तुलसी पीसकर कर कीड़े के काटे भाग पर लगायें।
तुलसी के पत्तों को नमक के साथ पीसकर लगाने से भौंरा, बर्र, बिच्छू के दंश की वेदना व जलन शीघ्र मिट जाती है।
सिरदर्द मिटाने के लिए सरल उपाय
लौकी का गूदा सिर पर लेप करने से सिरदर्द में तुरंत आराम मिलता है। सोंठ, तेजपत्ता, काली मिर्च, अर्जुन, इलायची, दालचीनी आदि से बनी आयुर्वेदिक चाय में दूध की जगह नींबू मिलाकर पियें और सो जायें। पेट और सिर दोनों को आराम मिलेगा।
आयुर्वेदिक चाय संत श्री आसारामजी आश्रमों व आश्रम की समितियों के सेवाकेन्द्रों पर भी उपलब्ध है।
पित्त से उत्पन्न सिरदर्द में खीरा काटकर सूँघने एवं सिर पर रगड़ने से तुरंत आराम मिलता है।
एक चम्मच सौंफ चबाकर दूध पी लें। पेट और सिरदर्द में लाभ होगा।
सिरदर्द में सभी उँगलियों के ऊपरी सिरों पर रबरबेंड लपेट लें, सिरदर्द एवं थकान तुरंत दूर होगी।
जलने पर क्या करें ?
पटाखे सावधानी से जलायें। जल जाने पर कच्चे आलू के पतले चिप्स जले हुए स्थान पर रखने से लाभ होता है।
मंत्रों की शक्ति दे सुख-शांति और समृद्धि
नौकरी-धंधे के लिये जाते हैं, सफलता नहीं मिलती तो इक्कीस बार श्रीमदभगवदगीता का अंतिम श्लोक बोलकर फिर घर से निकलें तो सफलता मिलेगी। श्लोकः
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिमम्।।
पीपल के पेड़ में शनिवार और मंगलवार को दूध, पानी और गुड़ मिलाकर चढ़ायें और प्रार्थना करें कि 'भगवान ! आपने गीता में कहा है 'वृक्षों में पीपल मैं हूँ।' तो हमने आपके चरणों में अर्घ्य अर्पण किया है, इसे स्वीकार करें और मेरी नौकरी धंधे की जो समस्या है वह दूर हो जाये।'
श्री हरि.. श्री हरि.... श्री हरि... थोड़ी देर जप करें। तीन बार जपने से एक मंत्र हुआ। उत्तराभिमुख होकर इस मंत्र की 1-2 माला शांतिपूर्वक करें और चलते-फिरते भी इसका जप करें तो विशेष लाभ होगा और रोजी रोटी के साथ ही शांति, भक्ति और आनन्द भी बढ़ेगा।
बस, अपने-आप समस्या हल हो जायेगी।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अक्तूबर 2010, पृष्ठ संख्या 13, अंक 160
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