सोमवार, 12 सितंबर 2011

सीधे बैठिये, आत्मविश्वास बढ़ाइये



वैज्ञानिकों का कहना है कि बैठने के ढंग का सीधा संबंध आत्मविश्वास से है। जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेरियर द्वारा किये गये एक शोध में पाया गया है की ढीला और झुककर बैठने के आदी लोगों की तुलना में सीधे बैठने वाले लोगों का आत्मविश्वास बहुत अधिक बढ़ता है।
इस शोध को करने वाले विज्ञानियों ने सौ से भी अधिक लोगों को एक परीक्षण में हिस्सा लेने को कहा। प्राप्त परिणामों में पाया गया कि जो लोग सीधे बैठकर काम कर रहे थे उनका प्रदर्शन काफी अच्छा था लेकिन झुककर काम करने वालों के प्रदर्शन पर बहुत ही विपरीत असर पड़ा। विज्ञानियों का कहना है कि सीधे बैठकर काम करने से अंदर बेहतर तरीके से काम करने की भावना का जन्म होता है।
वैज्ञानिक तो अभी इस बात पर सहमत हुए हैं पर भारत के ऋषि और संत तो सदियों पहले से ही सीधे बैठने के इस नियम को विद्यार्थियों के जीवन में ढालने का निर्देश देते आये हैं। आज भी पूज्य बापू जी अपने सत्संग शिविरों में विद्यार्थियों को ही नहीं अपितु सभी को सीधे टट्टार बैठने को प्रेरित करते हैं।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 145
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जिज्ञासु बनो



विश्व की सारी बड़ी-बड़ी खोजें – चाहे वे ऐहिक जगत की हों, बौद्धिक जगत की हों, धार्मिक जगत की हों अथवा तात्त्विक जगत की हों – सब खोजें हुई हैं जिज्ञासा से ही। इसलिए अगर अपने जीवन को उन्नत करना चाहते हो तो जिज्ञासु बनो। वे ही लोग महान बनते हैं जिनके जीवन में जिज्ञासा होती है।
थामस अल्वा एडिसन तुम्हारे जैसे ही बच्चे थे। वे बहरे भी थे। पहले रेलगाड़ियों में अखबार, दूध की बोतलें आदि बेचा करते थे परंतु उनके जीवन में जिज्ञासा थी, अतः आगे जाकर उन्होंने आविष्कार किये। बिजली का बल्ब आदि 1093 खोजें उनकी देन हैं। जहाँ चाह वहाँ राह। जिसके जीवन में जिज्ञासा है वह उन्नति के शिखर जरूर सर कर सकता है। जीवन में यदि कोई जिज्ञासा नहीं हो तो फिर उन्नति नहीं हो पाती।
हीरा नामक एक लड़का था, जो किसी सेठ के यहाँ नौकरी करता था। एक दिन उसने अपने सेठ से कहाः "सेठ जी ! मैं आपका 24 घण्टे का नौकर हूँ और मुनीम तो केवल एक दो घण्टे के लिए आकर आपसे इधर-उधर की बातें करके चला जाता है। फिर भी मेरा वेतन केवल 500 रूपये है और मुनीम का 5000 रूपये, ऊपर से सुविधाएँ भी उसको ज्यादा, ऐसा क्यों?"
सेठः "हीरा ! तुझमें और मुनीम में क्या फर्क है यह जानना चाहता है तो जा, जरा बंदरगाह होकर आ। वहाँ अपना कौन सा स्टीमर आया है, उसकी जाँच करके आ।"
नौकर गया एवं रात्रि को लौटा। उसने सेठ से कहाः "सेठ जी ! अपना बादाम और काली मिर्च का स्टीमर आया है।"
सेठः "और क्या माल आया है?"
वह फिर पूछने गया एवं आकर बोलाः
"लौंग भी आयी है।"
सेठः "यह किसने बताया?"
हीराः "एक आदमी ने।"
सेठः "अच्छा, वह आदमी कौन था? जवाबदार मुख्य आदमी था कि साधारण?"
हीराः "यह तो पता नहीं है।"
सेठः "जाओ, जाकर मुख्य आदमी से पूछो कि कौन-कौन सी चीजें आयी हैं और कितनी कितनी आयी हैं?"
हीरा फिर गया और सामान एवं उसकी मात्रा लिखकर लाया।
सेठः "ये चीजें किस भाव में आयी हैं और इस समय बाजार में क्या भाव चल रहा है, यह पूछा तूने ?"
हीराः "यह तो नहीं पूछा।"
सेठः "अरे मूर्ख ! ऐसा करते करते तो महीना बीत जायेगा।"
फिर सेठ ने मुनीम को बुलाया और कहाः
"बंदरगाह जाकर आओ।"
मुनीम वहाँ हो के आया और बोलाः
"सेठ जी ! इतने मन बादाम हैं, इतने मन काली मिर्च है, इतने मन लौंग हैं और इतने इतने मन फलानी चीजें हैं। सेठ जी ! हमारा स्टीमर जल्दी आ गया है एत दो दिन बाद दूसरे स्टीमर आयेंगे तो बाजार भाव में मंदी हो जायेगी। अभी बाजार में माल की कमी है, अतः अपना माल खींचकर चुपके से बेच देने में ही लाभ है। यहाँ आने जाने में देर हो जाती, अतः मैं आपसे पूछने नहीं आया और माल बेच दिया है। अच्छे पैसे मिले हैं, यह रहे दो लाख रूपये।"
सेठ ने नौकर से कहाः "देख लिया फर्क ! तू केवल चक्कर काटता रहता और दो चार दिन विलम्ब हो जाता तो मुझे पाँच लाख का घाटा पड़ता। यह मुनीम पाँच लाख के घाटे को रोककर दो लाख का नफा करके आया है। इसको मैं 5000 रूपये देता हूँ तो भी सस्ता है और तुझको 500 रूपये देता हूँ फिर भी महँगा है, क्योंकि तुझमें जिज्ञासा नहीं है।"
बिना जिज्ञासा का मनुष्य आलसी-प्रमादी हो जाता है, तुच्छ रह जाता है जबकि जिज्ञासु मनुष्य हर कार्य में तत्पर एवं कर्मठ होता है। जिसके अंदर जिज्ञासा है वह छोटी-छोटी बातों में भी बड़े रहस्य खोज लेगा और जिसके जीवन में जिज्ञासा नहीं है वह रहस्य को देखते हुए भी अनदेखा कर देगा। जिज्ञासु की दृष्टि पैनी होती है, सूक्ष्म होती है। वह हर घटना को बारीकी से देखता है, खोजता है और खोजते-खोजते रहस्य को भी प्राप्त कर लेता है।
किसी कक्षा में पचास विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिसमें शिक्षक तो सबके एक ही होते हैं, पाठ्यपुस्तके भी एक ही होती हैं किंतु जो बच्चे शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनते हैं एवं जिज्ञासा करके प्रश्न पूछते हैं, वे ही  विद्यार्थी माता-पिता एवं स्कूल का नाम रोशन कर पाते हैं और जो विद्यार्थी पढ़ते समय ध्यान नहीं देते, सुना अनसुना कर देते हैं, वे थोड़े से अंक लेकर अपने जीवन की गाड़ी बोझीली बनाकर घसीटते रहते हैं एवं बड़े होकर फिर किस कोने में मर जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अतः जिज्ञासु बनो।
जब शिक्षक पढ़ाते हों उस समय ध्यान देकर पढ़ो। यदि समझ में न आये तो अपने आप उसको समझने की कोशिश करो। अपने आप उत्तर न मिले तो साथी से या शिक्षक से पूछ लो। ऐसा करके अपनी जिज्ञासा को बढ़ाओ और पूरो करो। जिसके पास जिज्ञासा नहीं है उसको तो ब्रह्माजी भी उपदेश करें तो क्या होगा ! जो व्यक्ति जितने अंश में जिज्ञासु होगा, तत्पर होगा वह उतने ही अंश में सफल होगा।
अगर जिज्ञासा नहीं होगी, तत्परता नहीं होगी तो पढ़ाई में पीछे रह जाओगे, बुद्धिमत्ता में पीछे रह जाओगे और मुक्ति में भी पीछे रह जाओगे। तुम पीछे क्यों रहो ! जिज्ञासु बनो, तत्पर बनो। सफलता तुम्हारा इन्तजार कर रही है। ऐहिक जगत के जिज्ञासु होते-होते मैं कौन हूँ?शरीर मरने के बाद भी मैं रहता हूँ, मैं आत्मा हूँ तो आत्मा का परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो ? जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है वह तत्त्व क्या है ? ऐसी जिज्ञासा करो। इस प्रकार की ब्रह्म जिज्ञासा करके ब्रह्मज्ञानी जीवन्मुक्त होने की क्षमताएँ तुममें भरी हुई हैं। शाबाश वीर ! शाबाश !!....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 159
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भक्ति रस बढ़ाने वाले आठ साधन



(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)
अगर भक्ति रस का रसास्वाद लेना है, विकारी आकर्षणों से जान छुड़ानी है, दुःखों और परेशानियों से अपना पिंड छुड़ाना है तो आठ बातों पर ध्यान देना बड़ा हितकारी।
भगवन्नाम-जप में रूचि हो। माला पर जपें, मानसिक जपें या वाचिक जपें, वैखरी से जपें, मध्यमा से जपें, पश्यंती से जपें या परा से जपें लेकिन नामजप में रुचि बढ़ा दें। बोलेः 'रूचि नहीं होती।' तो भी नामजप बढ़ा दें, रूचि बढ़ जायेगी।
भगवन्नाम-कीर्तन व भगवद-गुणगान करें।
सत्संग का आश्रय लेते रहें, बार बार सत्संग की शरण जायें।
सासांरिक चर्चा से बचें। फालतू चर्चा – क्या बनाया, क्या खाया, उसका क्या नाम है, फलाना कहाँ है, ढिमका कहाँ है.. इससे राग-द्वेष बढ़ता है, शक्ति क्षीण होती है।
दूसरों की निंद न करें, न सुनें।
स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान दें। मान की इच्छा रखने से जीवभाव, अहंकार उभरता है, जो भक्तिरस में बाधा है।
मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाये।
चाह उसी की राखता, सो भी अति दुःख पाये।।
जब कोई सेवा करता है तो लोग बोलते हैं 'वाह भाई ! तुमने बहुत बढ़िया काम किया।' यदि सेवा करने वाला बुद्धिमान होगा तो सतर्क हो जायेगा, सकुचायेगा और कोई अहंकारी होगा तो छाती फुलायेगा। जो अहंकारी, स्वार्थी लोग होते हैं वे काम थोड़ा करते हैं और नाम ज्यादा चाहते हैं। वे झुलसते हैं बेचारे, खाली रह जाते हैं। जो साधक होते हैं वे काम बहुत करते हैं और नाम नहीं चाहते हैं, तो भक्तिरस उनके हृदय में उभरता रहता है, आनंद उनके हृदय में उभरता रहता है।
अपने चित्त को दुःखी न करें और दूसरे का चित्त दुःखी हो ऐसी बात नहीं करें। ऐसी बात सुनाने का मौका भी आता है तो इस ढंग से सुनायें की उसको ज्यादा दुःख न हो।
सर्वदा सच्चरित्र रहें और सत्यस्वरूप में गोता मारने का अभ्यास करें।
भगवान और गुरू से निरहंकार होकर प्रेम करने से भक्तिरस बढ़ता है। जो उनसे संसारी माँग करते हैं वे असली खजाने से वंचित रह जाते हैं। भक्तिरस के आगे दुनिया के वैभव कुछ मायना नहीं रखते।
शांत रस, वीर रस, हास्य रस, श्रृंगार रस-ऐसे अनेक प्रकार के रस हैं लेकिन भक्ति के आचार्यों ने कहा कि इन सबमें प्रेमरस का ही प्राधान्य है। प्रेमरस ही अनेक रूप होकर दिखता है। सिनेमा में जो दिखाते हैं, वह तो सत्यानाश करने वाला काम है। प्रेमी-प्रेमिका जो प्रेमिका दिखाते हैं वह तो सत्यानाश करने वाला काम विकार है। प्रभुप्रेम तो परमात्ममय बना देता है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, नवम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 7, अंक 161
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ